लम्हों पर बैठी नज़्मों को
तितली जाल में बंद कर लेना
फिर, काट के पर उन नज़्मों को
अल्बम में 'पिन' करते रहना
ज़ुल्म नहीं तो और क्या है ?
लम्हे काग़ज़ पर गिर कर ममियाये जाते हैं
नज़मों के रंग रह जाते हैं पोरों पर !!
पोरों - fingertips
Added by Rina Badiani Manek on August 14, 2014 at 6:39am —
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परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।
सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूँ मैं।
सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में
उनके बारे में सोचता…
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Added by Rina Badiani Manek on August 14, 2014 at 12:47am —
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पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाख़ों में
भरम बहार का बाक़ी रहा निगाहों में
सबा तो क्या कि मुझे धूप तक जगा न सकी
कहाँ की नींद उतर आयी है इन आंखों में
कुछ इतनी तेज़ है सुर्ख़ी कि दिल धड़कता है
कुछ और रंग पसे-रंग है गुलाबों में
सुपुर्दगी का नशा टूटने नहीं पाता
अना समाई हुई है वफ़ा की बाहों में
बदन पे गिरती चली जा रही है ख़्वाब सी बर्फ़
खुनक सपेदी घुली जा रही है सांसों में
सबा - सुबह की हवा
पसे-रंग - रंग के…
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Added by Rina Badiani Manek on August 12, 2014 at 9:21pm —
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जाने कब तक रहे यही तरतीब
दो सितारे खिले क़रीब क़रीब
चांद की रोशनी से उसने लिखी
मेरे माथे पे एक बात अजीब
मैं हमेशा से उसके सामने थी
उसने देखा नहीं, तो मेरा नसीब
रूह तक जिसकी आंच आती है
कौन ये शोला-रू है दिल के क़रीब
चांद के पास क्या खिला तारा
बन गया सारा आसमान रक़ीब
शज़र:-ए-अहले-दर्द किससे मिले
शहर में कौन रह गया है नजीब
शज़र:-ए-अहले-दर्द - पीड़ितों की सूची
नजीब - पत्रकार
Added by Rina Badiani Manek on August 12, 2014 at 10:58am —
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दीवारों से टकरा कर
टूटी
बिखरी पड़ी हैं....
फिर भी
बॉंब से छूटी
शार्पनेल की तरह
आरपार चीर जाती है
यह गूँगी आवाज़ ......
Added by Rina Badiani Manek on August 8, 2014 at 11:51am —
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હું સમયથી ભાગી છૂટી જાઉં ક્યાં
પારદર્શક શહેરમાં છુપાઉં ક્યાં
હું ક્ષિતિજની બ્હાર હોઈશ, આવજે
આ જગામાં આ રીતે રોકાઉં ક્યાં
હું સ્વયં અંધાર છું, ના શોધ કર
તારી ફરતો છું, તને દેખાઉં ક્યાં
હું પવનથી પાતળું કૈં પોત છું
મુઠ્ઠીમાં હોવા છતાં પકડાઉં ક્યાં
આ ધુમાડો ઊડતો ઘોંઘાટનો
શાંત ક્યાં વાતાવરણ છે, ગાઉં ક્યાં
Added by Rina Badiani Manek on August 6, 2014 at 10:29am —
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दिल के साथ लगा रहता है
क्या जाने ये डर कैसा है
आँगन में पत्ते फूटे हैं
सीढ़ी पर इक फूल खिला है
इक साया उभरा है गली में
खिड़की में इक हाथ उगा है
पुल को भी अब याद नहीं है
नीचे इक दरिया बहता है
अपने आप को धोखा देना
कभी कभी अच्छा लगता है
Added by Rina Badiani Manek on August 5, 2014 at 4:02pm —
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कभी दिल के अंधे कुएँ में
पड़ा चीख़ता है
कभी दौड़ते ख़ून में
तैरता डूबता है
कभी हड्डियों की
सुरंगो में बत्ती जलाकर
यूँ ही घूमता है
कभी कान में आके
चुपके से कहता है
तू अब तलक जी रहा है
बड़ा बेहया है
मेरे जिस्म में कौन है यह
जो मुझसे ख़फ़ा है
Added by Rina Badiani Manek on August 5, 2014 at 12:52pm —
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I keep on dying again.
Veins collapse, opening like the
Small fists of sleeping
Children.
Memory of old tombs,
Rotting flesh and worms do
Not convince me against
The challenge. The years
And cold defeat live deep in
Lines along my face.
They dull my eyes, yet
I keep on dying,
Because I love to live.
Added by Rina Badiani Manek on August 4, 2014 at 1:16pm —
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तेरे उतारे हुए दिन टंगे हैं लॉन में अब तक
न वो पुराने हुए हैं, न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जलदी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ -
फ़क़ीरा अब भी वहीं मेरी कॉफ़ी देता है
कभीकभी जब उतरती है चील शाम की छत से
थकी-थकी सी ज़रा देर लॉन में रूक कर
सफ़ेद और गुलाबी, 'मसुंडे' के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ़ का…
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Added by Rina Badiani Manek on August 4, 2014 at 10:31am —
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जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएंगे।
सेनाएँ हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बन्दर कहलाएंगे
Added by Rina Badiani Manek on August 2, 2014 at 8:35am —
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तब्अ बिगड़ी हुई ज़ालिम की संभाली न गई
जो गिरह दिल में पड़ी फिर वो निकाली न गई
कब मुझे देख के तलवार निकाली न गई
जब निकाली तो नज़ाकत से संभाली न गई
ग़ैर के सामने बेपरदा हुए थे इक बार
फिर नक़ाब उनसे कभी चेहरे पे डाली न गई
तू भी बेचैन हुआ दिल के सताने वाले
दर्द-मंदो की दुआ देख ले खाली न गई
ज़ुल्फ़ में रख के मेरे दिल को गिरा आए कहाँ
ये रक़म बेश-बहा जेब में डाली न गई
नातवानी में हवा से मेरे पर उड़ते हैं
छूट कर दाम से भी…
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Added by Rina Badiani Manek on August 1, 2014 at 12:06pm —
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