Don't go far off, not even for a day, because --
because -- I don't know how to say it: a day is long
and I will be waiting for you, as in an empty station
when the trains are parked off somewhere else, asleep.
Don't leave me, even for an hour, because
then the little drops of anguish will all run together,
the smoke that roams looking for a home will drift
into me, choking my lost heart.
Oh, may your silhouette never dissolve on the…
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Added by Rina Badiani Manek on July 29, 2015 at 6:36pm —
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हर दस्तक पे
दिल धड़कने लगता है
कोई अनजान डर से....
कुछ बढ़ ही जाती है तन्हाई......
कभी महसूस होता है
जैसे कहीं
ईंट पर ईंट चढ़ती जा रही है
न कोई दरवाज़ा ...
न कोई दस्तक....
और फिर भी एक इन्तज़ार
कोई आए !!!!
और
तोड़ दे यह पाँचवीं दीवार ..
Added by Rina Badiani Manek on July 5, 2015 at 6:54pm —
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वह पत्थर पे खिलते हुए
ख़ूबसूरत बनफ़्शे का इक फूल थी
जिसकी सांसों में जंगल की
वहशी हवाएँ समायी हुई थी
उसके बेसाख़्ता हुस्न को देखकर
इक मुसाफ़िर बड़े प्यार से तोड़ कर
अपने घर ले गया
और फिर
अपने दीवानख़ाने में रक्खे हुए
काँच के खूबसूरत से फूलदान में
उसको ऐसे सजाया
कि हर आनेवाले की पहली नज़र
उस पे पड़ने लगी
दाद-ओ-तहशी की बारिश में
वह भीगता ही गया
कोई उससे कहे
गोल्डन लीफ़ और यूडीकोलोन की
नर्म शहरी महक…
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Added by Rina Badiani Manek on July 3, 2015 at 6:57pm —
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वह पत्थर पे खिलते हुए
ख़ूबसूरत बनफ़्शे का इक फूल थी
जिसकी सांसों में जंगल की
वहशी हवाएँ समायी हुई थी
उसके बेसाख़्ता हुस्न को देखकर
इक मुसाफ़िर बड़े प्यार से तोड़ कर
अपने घर ले गया
और फिर
अपने दीवानख़ाने में रक्खे हुए
काँच के खूबसूरत से फूलदान में
उसको ऐसे सजाया
कि हर आनेवाले की पहली नज़र
उस पे पड़ने लगी
दाद-ओ-तहशी की बारिश में
वह भीगता ही गया
कोई उससे कहे
गोल्डन लीफ़ और यूडीकोलोन की
नर्म शहरी महक…
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Added by Rina Badiani Manek on July 3, 2015 at 6:53pm —
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ये शाम एक वक़्फ़ा है
ये एक ठंडी साँस है
ये 'पेराग्राफ' है
तमाम रात-दिन यहीं पे रूकते हैं
बदल के पहलू, फिर से बात तुम्हारी जारी रखते हैं !
ये शाम एक वक़्फ़ा है !
Added by Rina Badiani Manek on June 30, 2015 at 6:06pm —
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ख़ामोशी के कुएँ में उतरो
रेत ही रेत पड़ी है ख़स्ता आवाज़ों की
मुर्दा लफ़्ज़ों के कंकर हैं
काई लगी है दीवारों पर !
पानी......
पानी कहीं नहीं है, ख़ामोशी का हलक़ भी सूख रहा है !!
Added by Rina Badiani Manek on June 30, 2015 at 10:49am —
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एक ज़ंग आलूदा
तोप के दहाने में
नन्ही मुन्नी
चिड़िया ने
घोंसला बनाया है
Added by Rina Badiani Manek on June 25, 2015 at 5:58pm —
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कल सुबह जब बारिश ने आकर खिड़की पर दस्तक दी थी
नींद में था मैं बाहर अभी अंधेरा था
ये तो कोई वक़्त नहीं था, उठ कर उससे मिलने का
मैंने परदा खींच दिया
गीला गीला एक हवा का झोंका उसने
फूंका मेरे मुंह पर लेकिन
मेरी 'सैंस ऑफ़़ ह्युमर' भी कुछ नींद में थी
मैंने उठ कर ज़ोर से खिड़की के पट उस पर भिड़ दिए
और करवट लेकर, फिर बिस्तर में डूब गया ।
शायद बुरा लगा था उसको
गुस्से में खिड़की के काँच पे हथड़ मार के लौट गई वो
दोबारा फिर आई नहीं
खिड़की…
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Added by Rina Badiani Manek on June 22, 2015 at 8:04am —
1 Comment
मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक
कविता लिखना चाहता हूँ।
चिड़िया नें मुझ से पूछा, 'तुम्हारे शब्दों में
मेरे परों की रंगीनी है?'
मैंने कहा, 'नहीं'।
'तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?'
'नहीं।'
'तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?'
'नहीं।'
'जान है?'
'नहीं।'
'तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?'
मैनें कहा, 'पर तुमसे मुझे प्यार है'
चिड़िया बोली, 'प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?'
एक अनुभव हुआ नया।
मैं मौन हो…
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Added by Rina Badiani Manek on May 31, 2015 at 8:40pm —
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रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूं
उनको थामूं
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
या अपने कमरे में ठहरूं
चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
Added by Rina Badiani Manek on May 31, 2015 at 12:14am —
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जी में आता है कि इस कान में सुराख़ करूँ
खींचकर दूसरी जानिब से निकालूँ उसको
सारी की सारी निचोडूँ ये रगें साफ़ करूँ
भर दूँ रेशम की जलाई हुई भुक्की इसमें
कह्कहाती हुई भीड़ में शामिल होकर
मैं भी एक बार हँसूँ, खूब हँसूँ, खूब हँसू
Added by Rina Badiani Manek on May 29, 2015 at 4:11pm —
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तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया
पाँवों की सब ज़मीन को फूलों से ढँक दिया
किससे कहें कि छत की मुँडेरों से गिर पड़े
हमने ही ख़ुद पतंग उड़ाई थी शौक़िया
अब सब से पूछता हूँ बताओ तो कौन था
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया
मुँह को हथेलियों में छिपाने की बात है
हमने किसी अंगार को होंठों से छू लिया
घर से चले तो राह में आकर ठिठक गये
पूरी हुई रदीफ़ अधूरा है काफ़िया
मैं भी तो अपनी बात लिखूँ अपने हाथ से
मेरे सफ़े पे छोड़…
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Added by Rina Badiani Manek on May 19, 2015 at 10:24am —
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टहनी पर बैठा था वो
नीचे तालाब का पानी था और,
तालाब के अंदर आसमान था
डूबने से डर लगता था
न तैरा, न उड़ा, न डूबा
टहनी पर बैठे बैठे ही बिलाख़िर वो सूख गया !
एक अकेला शाख़ का पत्ता !
Added by Rina Badiani Manek on May 16, 2015 at 3:37pm —
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उससे पूछो
वह इतनी देर से क्यों आई है?
इस बीच पृथ्वी अपनी धुरी पर रहते हुए
सूर्य की कितनी परिक्रमा कर चुकी,
कितनी वनस्पतियाँ विजड़ित होकर चट्टान बन गई,
पत्थरों के कितने सारे सपने
रेत-रेत होकर बिखर चुके -
चिथड़े हो चुके महाकाव्य
और भूरी पड़ चुकी है सारी प्रतीक्षा ,
चिड़िया चहचहाने और गाने के बाद
थककर अपने घोंसलों में लौट गई है,
शब्द मौन की और बढ़ने लगे हैं, धीरेधीरे उभर रहा है मृत्यु का आवाहन संगीत -
उससे पूछो
वह इतनी देर से क्यों…
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Added by Rina Badiani Manek on May 15, 2015 at 5:32pm —
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मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।
अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच…
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Added by Rina Badiani Manek on May 12, 2015 at 2:27pm —
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मुझे भिन्न कहते हैं -
किसी पाँचवीं कक्षा के क्रुद्ध बालक की
गणित पुस्तिका में मिलूँगी -
एक पाँव पर खड़ी - डगमग !
मैं पूर्ण इकाई नहीं,
मेरा अधोभाग
मेरे माथे से जब भारी पड़ता है -
लोग मुझे मानते हैं ठीक-ठाक ,
अँग्रेजी में 'प्रोपर फ्रेक्शन' !
अगर कहीं गलती से
मेरा माथा
मेरे अधोभाग पर भारी पड़ जाए ,
लोगों के गले यह नहीं उतरता
और मेरे माथे पर बट्टा लग जाता है -
'इम्प्रोपर फ्रेक्शन' का !
क्या माथा अधोभाग से भारी…
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Added by Rina Badiani Manek on May 4, 2015 at 7:43pm —
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मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों-सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती!
बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा।
Added by Rina Badiani Manek on May 3, 2015 at 9:19pm —
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કોઈપણ
ચીસનો અવાજ
અનન્ય હોય છે,
અન્યથા
દુઃખ એ દુઃખ જ છે;
વળી
પીડા
રેશમી શ્વાસો વચ્ચે પણ
પીડા જ છે
અને એટલે
દરેક વાર 'બોર' થયેલી સાંજે
આપણે કંઈ પતંગિયા જેવા
લોકોનેય 'પાર્ટનર' બનાવી લઈએ છીએ
બે-હીચક !
અને આ પછી
આપણે આપણી પેલી
અનન્ય ચીસને
ભરપૂર ભરપૂર ચીસતી બનાવી
જીવી લઈએ છીએ
ચૂપચાપ !
Added by Rina Badiani Manek on April 29, 2015 at 5:38pm —
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ख़ार-ओ-ख़स तो उठे , रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया , क़ाफ़िला तो चले
चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम
ख़ैर बुझने दो उनको हवा तो चले
हाकिम-ए-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद है, मयक़दा तो चले
उसको मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आप ईँटों की हुरमत बचा तो चले
बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ कुछ पता तो चले
Added by Rina Badiani Manek on April 28, 2015 at 11:18am —
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अब के ख़फ़ा हुआ है तो इतना ख़फ़ा भी हो
तू भी हो और तुझमें कोई दूसरा भी हो
यूँ तो हर एक बीज की फितरत दरख़्त है
खिलते हैं जिसमें फूल वो आब-ओ-हवा भी हो
आँखें न छीन मेरी नक़ाबें बदलता चल
यूँ हो कि तू क़रीब भी हो और जुदा भी हो
रिश्तों के रेज़गार में कर सर पे धूप है
हर पाँव में सफ़र है मगर रास्ता भी हो
दुनिया के कहने सुनने पे इन्सानियत न छोड़
इन्सान है जो साथ में कोई ख़ता भी हो
Added by Rina Badiani Manek on April 27, 2015 at 9:24am —
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