ज़िंदगी को मैंने एक नयी 'हां' कर दी है......
एक 'नांह' थी
सम्भावना के पैरों में - अज़ल से ठुके हुए कील जैसी -
पर 'हां' के अर्थ को वही पहचानता
जो कील के वजूद से 'नांह' करनी जानता .....
और वही 'नांह' मैंने पैरों से निकाल कर
अपनी हथेलियों पे धर ली है ......
और ज़िंदगी को मैंने एक 'हां' कर दी है......
सम्भावना के कदमों से -
यह धरती कुछ मांग रही दिखती है
और आज दायें पैर की एड़ी
उसने राहों पर रख दी है.....
यह नाजुक बदन की…
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Added by Rina Badiani Manek on March 12, 2014 at 8:19am —
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Take this kiss upon the brow!
And, in parting from you now,
Thus much let me avow-
You are not wrong, who deem
That my days have been a dream;
Yet if hope has flown away
In a night, or in a day,
In a vision, or in none,
Is it therefore the less gone?
All that we see or seem
Is but a dream within a dream.
I stand amid the roar
Of a surf-tormented shore,
And I hold within my hand
Grains of the golden sand-
How few!…
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Added by Rina Badiani Manek on March 9, 2014 at 9:41pm —
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पत्थर की दीवार पे, लकड़ी की इक फ्रेम में काँच के अंदर फूल बने हैं
एक तसव्वुर ख़ुश्बू का और कितने सारे पहनावों में बन्द किया है
इश्क़ पे दिल का एक लिबास ही काफ़ी था, अब कितनी पोशाकें पहनेगा ।
Added by Rina Badiani Manek on March 9, 2014 at 6:05pm —
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જિંદગીની આ મજલમાં કોણ જાણે શું થયું ?
વીજવરણી એક પલમાં કોણ જાણે શું થયું ?
દોસ્ત, આ ચૂરા કરી ચાલ્યા છલકતા જામના,
તેં જ પાયેલા અમલમાં કોણ જાણે શું થયું ?
ધોમ રણવગડા અને ભડકા અમે વ્હાલા ગણ્યા ,
છાંયના ઘેઘૂર છલમાં કોણ જાણે શું થયું ?
ઓરણીમાં આગ વાવી'તી છતાં ફાંટે લણ્યા,
દૂધિયા દાણા ફસલમાં, કોણ જાણે શું થયું ?
જૂઠની બાજી ભલે ખેલી અમે જાણી કરી,
મૌજ માણી'તી અસલમાં, કોણ જાણે શું થયું ?
હર સુનેરી માછલી મરતી ગઈ મોતી…
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Added by Rina Badiani Manek on March 9, 2014 at 5:31pm —
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થાય જો તું ગીત મારું તો ગઉં,
હું નહીંતર આજીવન મૂંગો રઉં.
એમ મારી હાજરી તારામાં છે
જેમ કોઈ રંકના ઘરમાં ઘઉં.
વારતામાં આવતા રાક્ષસ સમું,
એકદમ એકાંત બોલ્યું કે, 'ખઉં ?'
બાળપણમાં જેમ મા કરતી હતી ,
એક કિસ્સાએ કર્યું એમ જ 'હઉં'!
હું અહીં હાજર હતો, છું ને છઉં,
તું કહે છે આ બધાને કે કઉં ?
Added by Rina Badiani Manek on March 7, 2014 at 7:15pm —
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સહેજ પણ આવી ન એની ગંધ પણ,
એ રીતે સરતા ગયા સંબંધ પણ....!
એનું આમંત્રણ ઉપરછલ્લું જ છે,
દ્વાર ખુલ્લા છે અને છે બંધ પણ.
અલ્પ તો હોતી નથી શરણાગતિ,
માથું ઝૂકે એ પછી આ સ્કંધ પણ.
કોઈ અમથું હમસફર બનતું નથી ,
કામ આવે છે ઋણાનુબંધ પણ.
Added by Rina Badiani Manek on March 7, 2014 at 6:46pm —
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પાણી છે એટલે હવે તરશે બધી જગા
સમંદરને શોધવા સતત ફરશે બધી જગા
જળવત્ ઊંડાણ લઈ અને ડૂબી ગઈ આ સાંજ
અંધારું બુંદ બુંદ થૈ ઝરશે બધી જગા
ઢોળાવ પરથી ઢળશે ઊંચેથી એ આવશે
થંભી જશે તો ખુદથી જ એ ભરશે બધી જગા
પાણીને પામવાના આ આપણા પ્રયત્નો
કોને ખબર કે પ્યાસ ઉછરશે બધી જગા
Added by Rina Badiani Manek on March 6, 2014 at 4:33pm —
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रस्ता भी कठिन धूप में शिद्दत भी बहुत थी
साये से मगर उसको मुहब्बत भी बहुत थी
ख़ेमे न कोई मेरे मुसाफ़िर के जलाये
ज़ख़्मी था बहुत पांव, मुसाफ़त भी बहुत थी
सब दोस्त मेरे मंतज़िरे-पर्द:-ए-शब थे
दिन में तो सफ़र करने में दिक़्क़त भी बहुत थी
बारिश की दुआओं में नमी आंख की मिल जाए
जज़्बे की कभी इतनी रिफ़ाकत भी बहुत थी
कुछ तो तेरे मौसम ही मुझे रास कम आये
और कुछ मेरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी
फूलों का बिखरना तो मुक़द्दर ही…
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Added by Rina Badiani Manek on March 4, 2014 at 11:09am —
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કનાતોથી હું ખંડિત, થઈ ગયો છું શ્હેરમાં આવી;
હું મારામાં વિભાજિત, થઈ ગયો છું શ્હેરમાં આવી.
મને પ્રશ્નો ભરી નજરે નિહાળે છે બધા રસ્તે,
હું જાણે અર્થ-ગર્ભિત, થઈ ગયો છું શ્હેરમાં આવી.
સતત પ્હેરી છે વીંટી, પણ નથી વીંટી હું ઓળખતો,
સ્મરણથી સાવ શાપિત, થઈ ગયો છું શ્હેરમાં આવી.
ભીતરથી તૂટીને વેરાઈ બેઠો છું અહીં ને ત્યાં -
ઉપરથી બહુ વ્યવસ્થિત, થઈ ગયો છું શ્હેરમાં આવી.
હવે પોપટની કોઈ ડોક મરડે, એ પ્રતીક્ષા છે,
બની પથ્થર હું સ્થાપિત , થઈ ગયો…
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Added by Rina Badiani Manek on March 4, 2014 at 10:39am —
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मैं इसको, मुट्ठी -भर मिट्टी को लेकर
कहाँ से देखो तो मुड़कर कहाँ से
उफ़क के भी परे से, उस तरफ़ से
चला हूँ और चलता आ रहा हूँ
ज़मीं के इस किनारे तक जहाँ पर
तुम अपनी रूह की लौ को सँभाले
सुलगते जिस्म को मुट्ठी में लेकर
किसी की मुन्तज़िर थी, मुन्तज़िर हो......
मुन्तज़िर - प्रतीक्षा में
Added by Rina Badiani Manek on March 2, 2014 at 5:42pm —
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જે ડૂબ્યું ખોળવાનો અર્થ નથી,
આંસુને ડહોળવાનો અર્થ નથી.
સીંચતા જળને બદલે મૃગજળ સહુ,
આપણે કોળવાનો અર્થ નથી.
ઘરપણું થઈ ગયું છે મેલું ત્યાં -
ભીંતને ધોળવાનો અર્થ નથી .
પલ્લું ભારી રહે છે દુનિયાનું,
સ્વપ્નને તોળવાનો અર્થ નથી .
જાગૃતિ જેણે ઓઢી ચાદર જેમ ,
એને ઢંઢોળવાનો અર્થ નથી .
એ મળે તો સહજ રીતે જ મળે,
બાકી ફંફોળવાનો અર્થ નથી .
ઝીલતાં આવડે તો જ ઉછાળો,
શબ્દ ફંગોળવાનો અર્થ નથી .
Added by Rina Badiani Manek on March 2, 2014 at 5:02pm —
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चलते चलते एक दिन
पूछा था अमृता ने-
तुमने कभी woman with mind
paint की है?
चलते चलते मैं रूक गया
अपने भीतर देखा , अपने बाहर देखा
जवाब कहीं नहीं था
चारों ओर देखा -
हर दिशा की ओर देखा और किया इन्तज़ार
पर न कोई आवाज़ आई, न कहीं से प्रति-उत्तर
जवाब तलाशते-तलाशते
चल पड़ा और पहुँच गया-
पेंटिंग के क्लासिक काल में
अमृता के सवाल वाली औरत
औरत के अंदर की सोच
सोच के रंग
न किसी पेंटिंग के रंगों में दिखे
न ही किसी आर्ट ग्रंथ…
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Added by Rina Badiani Manek on March 1, 2014 at 4:41pm —
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She was afraid of men,
sin and the humors
of the night.
When she saw a bed
locks clicked
in her brain.
She screwed a frown
around and plugged
it in the keyhole.
Put a chain across
her door and closed
her mind.
Her bones were found
round thirty years later
when they razed
her building to
put up a parking lot.
Autopsy read:
dead of acute peoplelessness.
Added by Rina Badiani Manek on February 26, 2014 at 5:31pm —
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बे-यारो मददगार ही काटा था सारा दिन
कुछ ख़ुद से अजनबी सा,
तन्हा , उदास सा,
साहिल पे दिन बुझा के मैं, लौट आया फिर वहीं ,
सुनसान सी सड़कों के ख़ाली मकान में !
दरवाज़ा खोलते ही, मेज़ पे रखी किताब ने कहा,
"देर कर दी दोस्त "
Added by Rina Badiani Manek on February 25, 2014 at 4:00pm —
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गुलों को सुनना ज़रा तुम सदायें भेजी है
गुलों के हाथ बहुत सी दुआएँ भेजी हैं
जो आफ़ताब कभी भी ग़ुरूब होता नहीं
वो दिल है मेरा उसी की शु'आयें भेजी हैं
तुम्हारी ख़ुश्क सी आँखें भली नहीं लगती
वह सारी यादें जो तुमको रूलायें भेजी हैं
स्याह रंग, चमकती हुई किनारी है
पहन लो अच्छी लगेगी घटायें भेजी हैं
तुम्हारे ख़्वाब से हरदम लिपट के सोते हैं
सज़ायें भेज दो, हमने ख़तायें भेजी हैं
अकेला पत्ता हवा में बहुत बुलंद उड़ा
ज़मीं…
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Added by Rina Badiani Manek on February 25, 2014 at 2:59pm —
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मैं चुप, शांत और अडोल खड़ी थी
सिर्फ़ पास बहते समुद्र में तूफ़ान था
फिर समुद्र को ख़ुदा जाने क्या ख़याल आया
उसने तूफ़ान की इक पोटली सी बाँधी
मेरे हाथों में थमाई और हँसकर कुछ दूर हो गया
हैरान थी पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस तरह की घटना कभी सदियों में होती है
लाखों ख़याल आये
माथे में झिलमिलाये
पर खड़ी रह गयी कि इसको उठाकर
अब अपने शहर में मैं कैसे जाऊंगी ?
मेरे शहर की हर गली तंग है
मेरे शहर की हर छत नीची…
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Added by Rina Badiani Manek on February 25, 2014 at 12:08am —
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न मैंने वुजू किया है, न कोई सजदा किया है
न मन्नत माँगने आई हूं
तेरे चारों चिराग जलते रहें
मैं तो पांचवां जलाने आई हूं.....
दुखों को पेल कर मैंने तेल लिया है
और माथे का तेवर एक रूई की बत्ती
जो माथे में सजाई है.....
चेतना की नदी में हाथों को धोया है
माथे का दिया हथेलियों पर लिया है
और उसे आत्मा की आग छुआ दी है......
यह मिट्टी का दीया , तूने ही तो दिया था
मैंने तो उसे आग का शगुन डाला है
और तेरी अमानत लौटा लाई हूं....
तेरे…
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Added by Rina Badiani Manek on February 24, 2014 at 10:15am —
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ये राह बहुत आसान नहीं,
जिस राह पर हाथ छुड़ा कर तुम
यूं तन तन्हा चल निकली हो
इस ख़ौफ़ से शायद राह भटक जाओ न कहीं
हर मोड़ पे मैंने नज़्म खड़ी कर दी है !
थक जाओ अगर -----
और तुमको ज़रूरत पड़ जाये,
इक नज़्म की उँगली थाम के वापस आ जाना !!
गुलज़ार
Added by Rina Badiani Manek on February 24, 2014 at 8:19am —
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आसमान के महलों में मेरा सूरज सो रहा है
जहाँ कोई द्वार नहीं , कोई खिड़की नहीं
और सदीयों के हाथों ने
जो पगदंड़ी बनाई है -
वह मेरी सोच के पैरों के लिए
बहुत संकरी है......
Added by Rina Badiani Manek on February 22, 2014 at 1:50am —
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बदल कर देखें तो रस्ता,
वहीं से आते जाते हैं हमेशा !
वही है भेजता है, ऐसा कहते हैं
कि बिल्डर जिस तरह साइट पे वर्कर्ज़ भेजता है
बुला लेता है जब उसकी दिहाड़ी ख़त्म होती है !
बहुत से और भी सय्यारे हैं इस कायनात में
बदल कर देखें कोई और मालिक ज़िंदगी का
कहीं पे और भी कोई ख़ुदा होगा !
Added by Rina Badiani Manek on February 22, 2014 at 12:56am —
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