सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।
मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार
चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?
मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी—
तिनके की नोक-भर?
शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी—
किरण की ओक-भर?
मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,
लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैने आकाश से मांगी
आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।
सब से उधार मांगा, सब ने दिया ।
यों…
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Added by Rina Badiani Manek on April 4, 2014 at 10:44am —
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આવ, દરિયો થૈને મુજને જળરૂપે તું સાંભરે
મન હલેસાતું રહે, ખળખળ રૂપે તું સાંભરે .
જન્મ જન્માંતરની આ તૂટી તરસ લઈ ક્યાં જવું ?
મુલ્ક સહરાનો અને મૃગજળ રૂપે તું સાંભરે.
કેટલી નૌકા ડૂબી ને કેટલા કાંઠા તૂટ્યા!
રેત પર અંકાયેલી હરપળ રૂપે તું સાંભરે .
નાવ હંકારી નથી ને ત્યાં વમળ સર્જાય છે,
શાંત દરિયાના એ ઊંડા જળ રૂપે તું સાંભરે .
Added by Rina Badiani Manek on April 2, 2014 at 12:17pm —
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એક કંકર, કૈંક સ્પંદન, ને પછી નિ:શબ્દતા,
સ્પર્શ પહેલો, સ્હેજ કંપન, ને પછી નિ:શબ્દતા.
યાદ છે એનું પ્રથમ એ આગમન આજે હજી ,
સ્હેજ ખનક્યું એક કંગન, ને પછી નિ:શબ્દતા.
શબ્દ ધરબાયેલ ઊંડે હોય, એને પામવા,
કેટલી રાતોનું મંથન, ને પછી નિ:શબ્દતા.
કાળની સૂક્કી ધરા પર કેટલું ચાલ્યા છતાં ,
એક બે પગલાંનું અંકન, ને પછી નિ:શબ્દતા.
જન્મ સાથે દેહમાં કેદી થયેલા શ્વાસનું,
એક પળમાં મુક્ત બંધન , ને પછી નિ:શબ્દતા.
Added by Rina Badiani Manek on March 27, 2014 at 4:41pm —
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शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले
रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था
वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले
वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले
इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले
धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले
परवीन शाकिर
सुबक-नाम = जिसका नाम…
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Added by Rina Badiani Manek on March 27, 2014 at 2:39pm —
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એક ભ્રમનો આશરો હતો .... એ પણ તૂટી ગયો
પગરવ બીજા બધાયના હું ઓળખી ગયો
ઘટના વિના પસાર થયો આજનો દિવસ
સૂરજ ફરી ઊગ્યો ને ફરી આથમી ગયો
આજે ફરીથી શક્યતાનું ઘર બળી ગયું
મનને મનાવવા ફરી અવસર મળી ગયો
બીજું તો ખાસ નોંધવા જેવું થયું નથી
હું બારણાં સુધી જઈ...... પાછો વળગી ગયો
મારાથી આજ તારી પ્રતીક્ષા થઈ નહીં
મારો વિષાદ જાણે કે શ્રદ્ધા બની ગયો
Added by Rina Badiani Manek on March 24, 2014 at 6:29pm —
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At least there is poetry,
Into which to empty
The tortured corpse of the day.
A morticial of embalm
the ravaged body.
A priest to sing hymns
to still the soul
of the recently departed.
He shudders under the whiplash
of the daily hours,
but at night there is the poetry,
like balm, kissing the wounds.
And when he is afire with love,
a screaming inferno
of smoking agony,
surrounded by the
the implacable…
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Added by Rina Badiani Manek on March 24, 2014 at 7:06am —
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Tonight I can write the saddest lines.
Write, for example,'The night is shattered
and the blue stars shiver in the distance.'
The night wind revolves in the sky and sings.
Tonight I can write the saddest lines.
I loved her, and sometimes she loved me too.
Through nights like this one I held her in my arms
I kissed her again and again under the endless sky.
She loved me sometimes, and I loved her too.
How could one not…
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Added by Rina Badiani Manek on March 22, 2014 at 11:33am —
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तिनका तिनका काँटे तोड़े, सारी रात कटाई की
क्यों इतनी लंबी होती है, चाँदनी रात जुदाई की
नींद में कोई अपने आप से बातें करता रहता है
काल कुंए मे गुंजती है आवाज़ किसी सौदाई की
सीने में दिल की आहट, जैसे कोई जासूस चले
हर साये का पीछा करना, आदत है हरजाई की
आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुमने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
तारों की रोशन फसलें और रात की एक दरांती थी
साहू ने गिरवी रख ली थी, मेरी रात कटाई…
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Added by Rina Badiani Manek on March 22, 2014 at 10:08am —
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બે તરફ બે છોર દઈને મોકલી દીધા,
વાંસડો ને દોર દઈને મોકલી દીધા.
આંખને આપી તો આ કાનોની પાંપણ ક્યાં?
ચોતરફ આ શોર દઈને મોકલી દીધા!!
દીધું છે તસવીરમાં વરસાદ જેવું સુખ,
સાથે આ મનમોર દઈને મોકલી દીધા.
ડોર કઠપુતળીની તારા હાથમાં રાખી,
ને પછી આ તોર દઈને મોકલી દીધા.
દૂર દેખાડીને કોઈ રામની મૂરત
છાબડીમાં બોર દઈને મોકલી દીધા.
રીના
Added by Rina Badiani Manek on March 21, 2014 at 1:02pm —
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कहीं जाना नहीं है
बस यूँही सड़कों पे घूमेंगे
कहीं पर तोड़ेंगे सिग्नल
किसी की राह रोकेंगे
कोई चिल्ला के गाली देगा
कोई 'होर्न' बजायेगा !
ज़रा अहसास तो होगा कि ज़िंदा हैं
हमारी कोई हस्ती है !!!!
Added by Rina Badiani Manek on March 21, 2014 at 12:25pm —
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क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा
अगरचे एहसास कह रहा है
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
Added by Rina Badiani Manek on March 18, 2014 at 3:16am —
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मैंने कल रात शीशे की सुराही में -
ख़यालों की शराब भरी थी
ख़याल बड़े सुर्ख थे
दोस्तों ने जाम पिये थे
और उन लफ़्ज़ों के टोस्ट दिये थे
जो छाती में नहीं उगते
वे कौन से पेड़ पर उगते हैं
और होठों के गमले में कैसे आते हैं
यह सोचने का वक़्त नहीं था
या ऐसे कहूँ कि सोचने से सहम लगता था
यह लफ़्ज़ों का जश्न था
भुलावों की वर्षगांठ
मैं थी, रात थी, ख़यालों की शराब थी, और बड़े दोस्त ,
दोस्त जो कुछ बुलाने पर आए थे, कुछ बिन बुलाए
सिर्फ़ एक कोई…
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Added by Rina Badiani Manek on March 17, 2014 at 11:50pm —
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तुम्हारे ग़म की डली उठाकर
ज़ुबाँ पर रख ली है देखो मैंने
वह क़तरा-क़तरा पिघल रही है
मैं क़तरा-क़तरा ही जी रहा हूँ
पिघल-पिघलकर गले से उतरेगी आख़िरी बूँद दर्द की जब
मैं साँस की आख़िरी गिरह को भी खोल दूँगा .......
गुलज़ार
Added by Rina Badiani Manek on March 16, 2014 at 7:16pm —
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होती है गर्चे: कहने से यारो, पराई बात
पर हम से तो थमी न कभू, मुँह पर आई बात
कहते थे, उससे मिलिये, तो क्या क्या न कहिये, लेक
वह आ गया तो सामने उसके न आई बात
अब तो हुए हैं हम भी तेरे ढब से आश्ना
वाँ तूने कुछ कहा, कि इधर हमने पाई बात
'आलम सियाह ख़ान: है किसका, कि रोज़-ओ-शब
यह शोर है कि देती नहीं कुछ सुनाई बात
ख़त लिखते लिखते मीर ने दफ़्तर किये रवाँ
इफ़ात-ए-इश्तियाक़ ने, आख़िर बढ़ाई बात
मीर तक़ी मीर
सियाह…
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Added by Rina Badiani Manek on March 16, 2014 at 6:30pm —
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हर तमाशाई फ़क़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता
वो तो दुनिया को मेरी दीवानगी ख़ुश आ गई
तेरे हाथों में वगरना पहला पत्थर देखता
आँख में आँसू जड़े थे पर सदा तुझ को न दी
इस तवक़्क़ो पर कि शायद तू पलट कर देखता
मेरी क़िस्मत की लकीरें मेरे हाथों में न थीं
तेरे माथे पर कोई मेरा मुक़द्दर देखता
ज़िंदगी फैली हुई थी शामे-हिज्राँ की तरह
किसको इतना हौसला था कौन जी कर देखता
डूबने वाला था, और साहिल पे चेहरों…
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Added by Rina Badiani Manek on March 16, 2014 at 6:07pm —
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Snow falling and night falling fast, oh, fast
In a field I looked into going past,
And the ground almost covered smooth in snow,
But a few weeds and stubble showing last.
The woods around it have it - it is theirs.
All animals are smothered in their lairs.
I am too absent-spirited to count;
The loneliness includes me unawares.
And lonely as it is, that loneliness
Will be more lonely ere it will be less -
A blanker whiteness of…
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Added by Rina Badiani Manek on March 16, 2014 at 8:01am —
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The art of losing isn’t hard to master;
so many things seem filled with the intent
to be lost that their loss is no disaster.
Lose something every day. Accept the fluster
of lost door keys, the hour badly spent.
The art of losing isn’t hard to master.
Then practice losing farther, losing faster:
places, and names, and where it was you meant
to travel. None of these will bring disaster.
I lost my mother’s watch. And look! my last,…
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Added by Rina Badiani Manek on March 15, 2014 at 7:23am —
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हर बात के मानी नहीं होते
चीज़ें होती हैं
अपनी सम्पूर्णता में बोलती हुई
हर बार उनका कोई अर्थ नहीं होता
उन्हें सीमित करता हुआ
जैसे अपने अनंत रश्मि बिन्दुओं से बोलती
सुबहें होती हैं
जैसे फैलाती है तुम्हारी निगाह
छोर अछोर को समेटती ...
जीवन बढ़ता है
तमाम अर्थो को व्यर्थ करता
हमेशा
एक नए आकाश की ओर
उसका हिस्सा बनो
तनो मत
बल्कि खोलो खुद को
जैसे अन्धकार के गर्भ गृह से खुलती हैं
सुबहें
एक…
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Added by Rina Badiani Manek on March 13, 2014 at 4:55pm —
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मक़तले-वक़्त में ख़ामोश गवाही की तरह
दिल भी काम आया है गुमनाम सिपाही की तरह
एक लम्हे ने ज़माने की रज़ा पूछी थी
गुफ़्तगू होने लगी ज़िल्ले-इलाही की तरह
ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
ख़ामशी भी तो हुई पुश्तपनाही की तरह
उसने ख़ुश्बू से कराया था तआरूफ़ मेरा
और फिर मुझको बिखेरा भी हवा ही की तरह
कुल्लुहुम एक दिया और हवा की इक्लीम
फैलती जाए मुक़द्दर की सियाही की तरह
परवीन शाकिर
मक़तले-वक़्त - समय का…
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Added by Rina Badiani Manek on March 13, 2014 at 12:49pm —
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એકાદ વ્યક્તિની ભાષા ન સમજવી
એ કંઈ કારણ નથી બનતું
એને રમતમાં સહભાગી ન બનાવવાનું
પક્ષીની ચાંચ બાંધીને
એનું ગીત અટકાવીએ તો પણ
એના નાકમાંથી આવે છે સીટી જેવો અવાજ
ગરોળીની તૂટેલી પૂંછડી લાંબો સમય તરફડતી રહે છે.
જીભને કાપીને ટૂંકી કરીએ ત્યારે જીભ પરના
શબ્દોનું શું થાય છે
એનું સંશોધન કરવા માટે
સરમુખત્યારોએ અનેક પ્રયોગશાળા સ્થાપી
એમની બરણીઓમાં ભેગી કરાયેલી, કપાયેલી જીભો.
પણ શબ્દો પ્રગટ થતા રહ્યા
અનેક જીવતી જીભોમાંથી.
કોઈક…
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Added by Rina Badiani Manek on March 13, 2014 at 10:16am —
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