दीवारों से टकरा कर
टूटी
बिखरी पड़ी हैं....
फिर भी
बॉंब से छूटी
शार्पनेल की तरह
आरपार चीर जाती है
यह गूँगी आवाज़ ......
Added by Rina Badiani Manek on August 8, 2014 at 11:51am —
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હું સમયથી ભાગી છૂટી જાઉં ક્યાં
પારદર્શક શહેરમાં છુપાઉં ક્યાં
હું ક્ષિતિજની બ્હાર હોઈશ, આવજે
આ જગામાં આ રીતે રોકાઉં ક્યાં
હું સ્વયં અંધાર છું, ના શોધ કર
તારી ફરતો છું, તને દેખાઉં ક્યાં
હું પવનથી પાતળું કૈં પોત છું
મુઠ્ઠીમાં હોવા છતાં પકડાઉં ક્યાં
આ ધુમાડો ઊડતો ઘોંઘાટનો
શાંત ક્યાં વાતાવરણ છે, ગાઉં ક્યાં
Added by Rina Badiani Manek on August 6, 2014 at 10:29am —
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दिल के साथ लगा रहता है
क्या जाने ये डर कैसा है
आँगन में पत्ते फूटे हैं
सीढ़ी पर इक फूल खिला है
इक साया उभरा है गली में
खिड़की में इक हाथ उगा है
पुल को भी अब याद नहीं है
नीचे इक दरिया बहता है
अपने आप को धोखा देना
कभी कभी अच्छा लगता है
Added by Rina Badiani Manek on August 5, 2014 at 4:02pm —
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कभी दिल के अंधे कुएँ में
पड़ा चीख़ता है
कभी दौड़ते ख़ून में
तैरता डूबता है
कभी हड्डियों की
सुरंगो में बत्ती जलाकर
यूँ ही घूमता है
कभी कान में आके
चुपके से कहता है
तू अब तलक जी रहा है
बड़ा बेहया है
मेरे जिस्म में कौन है यह
जो मुझसे ख़फ़ा है
Added by Rina Badiani Manek on August 5, 2014 at 12:52pm —
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I keep on dying again.
Veins collapse, opening like the
Small fists of sleeping
Children.
Memory of old tombs,
Rotting flesh and worms do
Not convince me against
The challenge. The years
And cold defeat live deep in
Lines along my face.
They dull my eyes, yet
I keep on dying,
Because I love to live.
Added by Rina Badiani Manek on August 4, 2014 at 1:16pm —
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तेरे उतारे हुए दिन टंगे हैं लॉन में अब तक
न वो पुराने हुए हैं, न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जलदी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ -
फ़क़ीरा अब भी वहीं मेरी कॉफ़ी देता है
कभीकभी जब उतरती है चील शाम की छत से
थकी-थकी सी ज़रा देर लॉन में रूक कर
सफ़ेद और गुलाबी, 'मसुंडे' के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ़ का…
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Added by Rina Badiani Manek on August 4, 2014 at 10:31am —
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जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएंगे।
सेनाएँ हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बन्दर कहलाएंगे
Added by Rina Badiani Manek on August 2, 2014 at 8:35am —
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तब्अ बिगड़ी हुई ज़ालिम की संभाली न गई
जो गिरह दिल में पड़ी फिर वो निकाली न गई
कब मुझे देख के तलवार निकाली न गई
जब निकाली तो नज़ाकत से संभाली न गई
ग़ैर के सामने बेपरदा हुए थे इक बार
फिर नक़ाब उनसे कभी चेहरे पे डाली न गई
तू भी बेचैन हुआ दिल के सताने वाले
दर्द-मंदो की दुआ देख ले खाली न गई
ज़ुल्फ़ में रख के मेरे दिल को गिरा आए कहाँ
ये रक़म बेश-बहा जेब में डाली न गई
नातवानी में हवा से मेरे पर उड़ते हैं
छूट कर दाम से भी…
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Added by Rina Badiani Manek on August 1, 2014 at 12:06pm —
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अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ
मैं चाहता था चराग़ों को आफ़ताब करूँ
मैं करवटों के नए ज़ाविए लिखूँ शब भर
ये इश्क़ है तो कहाँ ज़िंदगी अज़ाब करूँ
है मेरे चारों तरफ़ भीड़ गूँगे-बहरों की
किसे ख़तीब बनाऊँ किसे ख़िताब करूँ
उस आदमी को बस इक धुन सवार रहती है
बहुत हसीन है दुनिया इसे ख़राब करूँ
ये ज़िंदगी जो मुझे क़र्ज़दार करती है
कहीं अकेले में मिल जाए तो हिसाब करूँ
राहत इन्दौरी
आफ़ताब - सूरज
ज़ाविए -…
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Added by Rina Badiani Manek on July 31, 2014 at 7:27pm —
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मेरी जाँ इस कदर अंधे कुएँ में
भला यूँ झाँकने से क्या दिखेगा
कोई पत्थर उठाओ और फेंको
अगर पानी हुआ तो चीख़ उठेगा
Added by Rina Badiani Manek on July 30, 2014 at 4:36pm —
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कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से
हुआ न कोई काम मामूल से
गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से
कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब
हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से
ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई, यही मेल है
मैं मुड़-मुड़ के देखा…
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Added by Rina Badiani Manek on July 30, 2014 at 3:36pm —
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मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा
आई इक आवाज़ कि तू जिसका मोहसिन कहलायेगा
पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से
रोशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बतायेगा
लोगो मेरे साथ चलो तुम जो कुछ है वो आगे है
पीछे मुड़ कर देखने वाला पत्थर का हो जायेगा
दिन में हँसकर मिलने वाले चेहरे साफ़ बताते हैं
एक भयानक सपना मुझको सारी रात डरायेगा
मेरे बाद वफ़ा का धोखा और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझको सर मेरा झुक जायेगा
सूख…
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Added by Rina Badiani Manek on July 29, 2014 at 11:48am —
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पागल है वो, सब कहते है
कद में बड़ी ही गई, लेकिन अक्लसे नहीं.
न कोई तहज़ीब , न तौर-तरीके.
वैसे तो बंद कमरे में ही रहती है
परेशां नहीं करती किसीको
लेकिन कभी कभी कमरे से भाग के बाहर आ जाती है
और लोग परेशां हों जाते है उससे...
क्या करूं उसका, कुछ समझ नहीं पाती.
उसकी आँखों में भरे आँसूओं को अनदेखा करती हूँ
तो उसकी चीखें, कानो में सुराख़ कर देती है.....
हिस्सा है इस अस्तित्व का .......
कैद कर सकती हूँ उसे, काट तो नहीं सकती......
Added by Rina Badiani Manek on July 14, 2014 at 6:26pm —
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आंधियां चाहें उठाओ,
बिजलियां चाहें गिराओ,
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।
रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।
दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में…
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Added by Rina Badiani Manek on July 7, 2014 at 8:35pm —
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न आते हमें इसमें तकरार क्या थी
मगर वादा करते हुए आर क्या थी
तुम्हारे पयामी ने ख़ुद राज़ खोला
ख़ता इसमें बन्दे की सरकार क्या थी?
भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा
तिरी आँख मस्ती में हुशियार क्या थी
तअम्मुल तो था उनको आने में क़ासिद
मगर ये बता तर्ज़े-इन्कार क्या थी?
खिंचे ख़ुद-ब-ख़ुद जानिबे-तूर मूसा
कशिश तेरी ऐ शौक़े-दीदाए क्या थी
कहीं ज़िक्र रहता है इक़बाल तेरा
फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या…
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Added by Rina Badiani Manek on July 1, 2014 at 8:02pm —
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I don’t cause teachers trouble;
My grades have been okay.
I listen in my classes.
I’m in school every day.
My teachers think I’m average;
My parents think so too.
I wish I didn’t know that, though;
There’s lots I’d like to do.
I’d like to build a rocket;
I read a book on how.
Or start a stamp collection…
But no use trying now.
’Cause, since I found I’m average,
I’m smart enough you see
To know there’s nothing special
I…
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Added by Rina Badiani Manek on June 25, 2014 at 11:36am —
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કૅન્વાસ પર એક ઊભી રેખા દોરી હતી
બાકી અવકાશ .
સામે ઊભેલી વ્યક્તિ કહે,
આ તો ગાંધીજી !
આ ગાંધીજીની લાકડી
અને ગાંધીજી પડદા પાછળ.
પણ લાકડી તો બીજા પણ રાખે કદાચ .
તો આ રેખાને ચશ્માની દાંડી તરીકે પણ તો જોઈ શકાય .
બીજો માણસ કહે,
આમાં તો પૃથ્વીનો આખો ઇતિહાસ આવી જાય.
પણ સીધી રેખા પૃથ્વી કેવી રીતે બને ?
કેમ? રેખાને વાળો અને બે છેડા ભેગા કરો
તો પૃથ્વી ના બને ?
પછી તો પૈડું પણ આ જ
અને શુન્ય પણ આ જ.
ઓહો ! આમાં તો…
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Added by Rina Badiani Manek on June 19, 2014 at 6:09pm —
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जाते जाते एक बार तो कार की बत्ती सुर्ख़ हुई
शायद तुम ने सोचा हो कि रूक जाओ, या लौट आओ
सिग्नल तोड़ के लेकिन तुम इक दूसरी जानिब घूम गये
Added by Rina Badiani Manek on June 19, 2014 at 4:31pm —
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છેલ્લા શબદે છેલ્લી તાળી,
હવે બધું લો ખાલી ખાલી !
એ ક્ષણ તો ઊડીને આવી ,
આ ક્ષણ પ્હોંચી ચાલી, ચાલી !
એક ઘૂંટડે પૂરું કરી દ્યો,
ક્યાં લગ પીવું પ્યાલી પ્યાલી !
મૂળે તો રહેવું મૂળ માંહીં,
વેલ વળૂંભી ફૂલી, ફાલી !
ખબર બધી યે જાય ઊખડતી,
ગાંઠ ગઠી જે ઠાલી ઠાલી !
Added by Rina Badiani Manek on June 17, 2014 at 5:50pm —
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मेरी दहलीज़ पर बैठी हुयी जानो पे सर रखे
ये शब अफ़सोस करने आई है कि मेरे घर पे
आज ही जो मर गया है दिन
वह दिन हमजाद था उसका!
वह आई है कि मेरे घर में उसको दफ्न कर के,
इक दीया दहलीज़ पे रख कर,
निशानी छोड़ दे कि मह्व है ये कब्र,
इसमें दूसरा आकर नहीं लेटे!
मैं शब को कैसे बतलाऊँ,
बहुत से दिन मेरे आँगन में यूँ आधे अधूरे से
कफ़न ओढ़े पड़े हैं कितने सालों से,
जिन्हें मैं आज तक दफना नही पाया!!
Added by Rina Badiani Manek on June 12, 2014 at 3:18am —
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