उन्हें हमेशा जल्दी रहती है
उनके पेट में चूहे कूदते हैं
और खून में दौड़ती है गिलहरी!
बड़े-बड़े डग भरते
चलते हैं वे तो
उनका ढीला-ढाला कुर्ता
तन जाता है फूलकर उनके पीछे
जैसे कि हो पाल कश्ती का!
बोरियों में टनन-टनन गाती हुई
रम की बोतलें
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से
कभी-कभी कहती हैं-
"कैसी हो","कैसा है मंडी का हाल?"
बढ़ते-बढ़ते
चले जाते हैं वे
पाताल तक
और वहाँ लग्गी लगाकर
बैंगन तोड़ने वाले
बौनों के वास्ते
बना…
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Added by Rina Badiani Manek on August 24, 2014 at 8:24pm —
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“अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाख़ून” -
अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर।
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।
जगह? जगह क्या होती है?
यह वैसे जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही।
याद था हमें एक-एक क्षण
आरंभिक पाठों का–
राम, पाठशाला जा !
राधा, खाना पका !
राम, आ बताशा खा !
राधा, झाड़ू लगा !
भैया अब सोएगा
जाकर बिस्तर बिछा !
अहा, नया घर है…
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Added by Rina Badiani Manek on August 24, 2014 at 6:36pm —
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धरती - अति सुंदर किताब
चाँद सूरज की जिल्द वाली
पर खुदाया ! यह दुख , भूख, सहम और गुलामी
यह तेरी इबारत है ?
-- या प्रूफों की गल्तियाँ ?
Added by Rina Badiani Manek on August 23, 2014 at 5:06pm —
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वह पत्थर पे खिलते हुई
ख़ूबसूरत बनफ़्शे का इक फूल थी
जिसकी साँसों में जंगल की
वहशी हवाएँ समायी हुई थी
उसके बेसाख़्ता हुस्न को देखकर
इक मुसाफ़िर बड़े प्यार से तोड़ कर
अपने घर ले गया
और फिर
अपने दीवानख़ाने में रक्खे हुए
काँच के ख़ूबसूरत से गुलदान में
उसको ऐसे सजाया
कि हर आनेवाले की पहली नज़र
उस पे पड़ने लगी
दाद-ओ-तहसीं की बारिश में
वह भीगता ही गया
कोई उससे कहे
गोल्डन लीफ़ और यूडीकोलोन की
नर्म शहरी महक…
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Added by Rina Badiani Manek on August 21, 2014 at 6:44pm —
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स्वप्न में
मन के सादे कागज पर
एक रात किसी ने
ईशारों से लिख दिया अ....
और अकारण
शुरू हो गया वह
और एक अनमनापन बना रहने लगा
फिर उस अनमनेपन को दूर करने को
एक दिन आई खुशी
और आजू-बाजू कई कारण
खडें कर दिए
कारणों ने इस अनमनेपन को पांव दे दिए
और वह लगा डग भरने , चलने और
और अखीर में उड़ने
अब वह उड़ता चला जाता वहां कहीं भी
जिधर का ईशारा करता अ...
और पाता कि यह दुनिया तो
इसी अकारण प्यार से चल रही है
और उसे पहली बार…
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Added by Rina Badiani Manek on August 19, 2014 at 9:46am —
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इक नक़ल तुझे भी भेजूंगा
ये सोच के ही.....
तन्हाई के नीचे कार्बन पेपर रखके मैं
उंची उंची आवाज़ में बात करता हूं
अल्फाज़ उतर आते हैं कागज़ पर लेकिन ...
आवाज़ की शक्ल उतरती नहीं
रातों की स्याही दिखती है !!
Added by Rina Badiani Manek on August 19, 2014 at 6:49am —
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आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा
आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसें
फट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगी
आज फिर जागते गुज़रेगी तेरे ख्वाब में रात
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ
Added by Rina Badiani Manek on August 18, 2014 at 10:02pm —
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दर्द हल्का है, साँस भारी है
जिये जाने की रस्म जारी है
आप के बाद हर घड़ी हमने
आप के साथ ही गुज़ारी है
रात को चाँदनी तो ओढ़ा दो
दिन की चादर अभी उतारी है
शाख़ पर कोई कहकहा तो खिले
कैसी चुप-सी चमन में तारी है
कल का हर वाक़या तुम्हारा था
आज की दास्ताँ हमारी है
Added by Rina Badiani Manek on August 18, 2014 at 7:10pm —
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चार तिनके उठा के जंगल से
एक बाली अनाज की लेकर
चंद कतरे बिलखते अश्कों के
चंद फांके बुझे हुए लब पर
मुट्ठी भर अपने कब्र की मिटटी
मुट्ठी भर आरजुओं का गारा
एक तामीर की लिए हसरत
तेरा खानाबदोश बेचारा
शहर में दर-ब-दर भटकता है
तेरा कांधा मिले तो टेकूं!
Added by Rina Badiani Manek on August 18, 2014 at 6:01pm —
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धूप लगे आकाश पे जब
दिन में चाँद नज़र आया था
डाक से आया मुहर लगा
एक पुराना सा तेरा, चिट्ठी का लिफाफा याद आया
चिट्ठी गुम हुए तो अरसा बीत चुका
मुहर लगा, बस मटियाला सा
उसका लिफाफा रखा है !
Added by Rina Badiani Manek on August 18, 2014 at 5:51pm —
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उम्र इक स्पूल पे लिपटी होती -या लिपटती जाती ,
और तस्वीरें शबोरोज़ की महफ़ूज़ भी हो जाती सभी, टेप के उपर-
मैं तेरे दर्दों को दोबारा से जीने के लिये ,
रोज़ दोहराता उन्हें , रोज़ 'रि-वाइन्ड' करता,
वो जो बरसों में जिया था, उसे हर शब जीता !!
Added by Rina Badiani Manek on August 18, 2014 at 6:44am —
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आज की रात बहुत सर्द है
और सारी रोशनियां
न जाने कौन सा रास्ता सजाने चली गई है ।
ज़माने भर की तनवीरें
चोरी छुपे
कोई बारात देखने जा निकली हैं
और हर जानिब
ठिठुरा हुआ घोर अंधेरा छोड़ गई हैं
मैं सोच रही हूँ
इस रात को
ऐसी सियाही कहाँ से मिली ?
क्या दिन
रात की गिरह से बंधा नहीं ?
क्या करूँ ?
अंधेरे से जी डरता है
और आज तो
याद का वह सहमा सहमा चिराग़ भी
बिना कहे
उस शरीर जुलूस के साथ चला गया है
रोशनियों के शहर की…
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Added by Rina Badiani Manek on August 17, 2014 at 8:09pm —
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एक हाथ में दर्द
और दूजे में भरोसा ....
मैंने नज़्म के सामने
हाथ फैलाए.....
उसने दर्द ले लिया
और
मैं फिर चल पड़ी
भरोसा लेकर .......
Added by Rina Badiani Manek on August 16, 2014 at 10:13am —
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मुझे मेरा जिस्म छोड़ कर बह गया नदी में
अभी उसी दिन की बात है मैं नहाने उतरा था घाट पर जब ठिठर रहा था......
वो छू के पानी की सर्द तहज़ीब, डर गया था
मैं सोचता था
बग़ैर मेरे वो कैसे काटेगा तेज़ धारा
वो बहते पानी की बेरूख़ी जानता नहीं है
वो डूब जायेगा ..... सोचता था
अब उस किनारे पहुंच के मुझको बुला रहा है
मैं इस किनारे पे डूबता जा रहा हूं पैहम
मैं कैसे तैरूं बग़ैर उसके !
मुझे मेरा जिस्म छोड़ कर बह गया नदी में !!
Added by Rina Badiani Manek on August 15, 2014 at 1:27pm —
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मैं घुटनें टेक दूँ इतना कभी मजबूर मत करना
खुदाया थक गई हूँ पर थकन से चूर मत करना
मुझे मालूम है की मैं किसी की हो नहीं सकती
तुम्हारा साथ गर माँगू तो तुम मंज़ूर मत करना
लो तुम भी देख लो कि मैं कहाँ तक देख सकती हूँ
ये आँखें तुम को देखें तो इन्हें बेनूर मत करना
यहाँ की हूँ वहाँ की हूँ, ख़ुदा जाने कहाँ की हूँ
मुझे दूरी से क़ुर्बत है ये दूरी दूर मत करना
न घर अपना न दर अपना, जो कमियाँ हैं वो कमियाँ हैं
अधूरेपन की आदी हूँ मुझे भरपूर…
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Added by Rina Badiani Manek on August 14, 2014 at 8:23pm —
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જિંદગી જડી છે ...પણ
આંખ તો મળી છે...પણ
પ્હાડનેય તોડીને
મૂરતી ઘડી છે....પણ
ઊતરી ઉંચાઈથી
ખારી થઈ પડી છે...પણ
બે કિનારે તું ને હું
નાવ આ ખડી છે....પણ
આંખમાં ભરી શ્રધ્ધા
વ્હેમથી લડી છે....પણ
Added by Rina Badiani Manek on August 14, 2014 at 6:13pm —
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लम्हों पर बैठी नज़्मों को
तितली जाल में बंद कर लेना
फिर, काट के पर उन नज़्मों को
अल्बम में 'पिन' करते रहना
ज़ुल्म नहीं तो और क्या है ?
लम्हे काग़ज़ पर गिर कर ममियाये जाते हैं
नज़मों के रंग रह जाते हैं पोरों पर !!
पोरों - fingertips
Added by Rina Badiani Manek on August 14, 2014 at 6:39am —
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परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।
सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूँ मैं।
सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में
उनके बारे में सोचता…
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Added by Rina Badiani Manek on August 14, 2014 at 12:47am —
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पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाख़ों में
भरम बहार का बाक़ी रहा निगाहों में
सबा तो क्या कि मुझे धूप तक जगा न सकी
कहाँ की नींद उतर आयी है इन आंखों में
कुछ इतनी तेज़ है सुर्ख़ी कि दिल धड़कता है
कुछ और रंग पसे-रंग है गुलाबों में
सुपुर्दगी का नशा टूटने नहीं पाता
अना समाई हुई है वफ़ा की बाहों में
बदन पे गिरती चली जा रही है ख़्वाब सी बर्फ़
खुनक सपेदी घुली जा रही है सांसों में
सबा - सुबह की हवा
पसे-रंग - रंग के…
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Added by Rina Badiani Manek on August 12, 2014 at 9:21pm —
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जाने कब तक रहे यही तरतीब
दो सितारे खिले क़रीब क़रीब
चांद की रोशनी से उसने लिखी
मेरे माथे पे एक बात अजीब
मैं हमेशा से उसके सामने थी
उसने देखा नहीं, तो मेरा नसीब
रूह तक जिसकी आंच आती है
कौन ये शोला-रू है दिल के क़रीब
चांद के पास क्या खिला तारा
बन गया सारा आसमान रक़ीब
शज़र:-ए-अहले-दर्द किससे मिले
शहर में कौन रह गया है नजीब
शज़र:-ए-अहले-दर्द - पीड़ितों की सूची
नजीब - पत्रकार
Added by Rina Badiani Manek on August 12, 2014 at 10:58am —
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