शब्द झूठे हैं सभी सत्यकथाओं की तरह
वक़्त बेशर्म है वेश्या की अदाओं की तरह
जाने वो किसका था साया कि जिसे छूने को
हम भटकते रहे आवारा हवाओं की तरह
प्यार के वास्ते प्यासा है ये दिल सदियों से
अब तो बरसो कोई सावन की घटाओं की तरह
हर अंधेरे से सुबह बनके गुज़र जाऊँगा
तेरा आंचल जो रहे सर प' दुआओं की तरह
आज पलकों में मुझे ख़्वाब बनाकर रख लो
कल मैं खो जाऊंगा गुमनाम गुफ़ाओं की तरह
मुझको सुलझाने में तुम ख़ुद ही उलझ…
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Added by Rina Badiani Manek on January 4, 2015 at 10:33am —
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मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों-सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती!
बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा।
Added by Rina Badiani Manek on October 8, 2014 at 11:33am —
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कभीकभी, जब मैं बैठ जाता हूँ
अपनी नज़्मों के सामने निस्फ़ दायरे में
मिज़ाज पूछूँ
कि एक शायर के साथ कटती है किस तरह से?
वो घूर के देखती हैं मुझ को
सवाल करती हैं ! उनसे मैं हूँ ?
या मुझसे हैं वो ?
वो सारी नज़्में , कि मैं समझता हूँ वो मेरे
'जीन' से हैं लेकिन
वो यूँ समझती हैं उनसे है मेरा नाक-नक़्शा
ये शक्ल उनसे मिली है मुझको !
मिज़ाज पूछूँ मैं क्या ? कि इक नज़्म आगे आती है
छू के पेशानी पूछती है -
" बताओ गर इन्तिशार है कोई सोच…
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Added by Rina Badiani Manek on October 5, 2014 at 9:11pm —
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तमाम लोग अकेले थे राहबर ही न था
बिछड़ने वालों में इक मेरा हमसफ़र ही न था
बरहना शाख़ों का जंगल गड़ा था आँखों में
वो रात थी कि कहीं चांद का गुज़र ही न था
तुम्हारे शहर की हर छाँव मेहरबां थी मगर
जहां पे धूप कड़ी थी , वहाँ शजर ही न था
समेट लेती शिकस्ता गुलाब की ख़ुश्बू
हवा के हाथ में ऐसा कोई हुनर ही न था
मैं इतने सांपो को रस्ते में देख आयी थी
कि तेरे शहर में पहुंची तो कोई डर ही न था
कहाँ से आती किरन ज़िंदगी के ज़िंदा…
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Added by Rina Badiani Manek on September 26, 2014 at 5:54pm —
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फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदः चिराग़
सो गई रस्तः तक-तक के हरइक राहगुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुँदला दिये क़दमों के सुराग़
गुल करो शम्एँ, बढ़ा दो मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आयेगा
राहरौ - पथिक
ग़ुबार - धूल
ऐवानों - महलों
मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़ - शराब, सुराही…
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Added by Rina Badiani Manek on September 19, 2014 at 7:57pm —
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कुछ तो हो!
कोई पत्ता तो कहीं डोले
कोई तो बात होनी चाहिए अब जिन्दगी में
बोलने मैं समझने - जैसी कोई बात ,
चलने में पहुँचने - जैसी
करने में हो जाने - जैसी कोई तरंग
या मौला, क्या हो रहा है यह
ओंठ चल रहे हैं लगातार
शब्द से अर्थ खेलते हैं कुट्टी-कुट्टी
पर बात कहीं भी नहीं पहुँच पाती.
जो देखो वो है सवार
कोई किसी के कंधे पर
कोई ऐन आपके ही सिर
सब हैं सवार
सब जा रहे हैं कहीं न कहीं
कहीं बिना पहुंचे हुए!
जैसे…
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Added by Rina Badiani Manek on September 14, 2014 at 7:57pm —
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दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं
क्यों गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाये दिल?
इन्सान हूँ, प्याला-ओ-साग़र नहीं हूँ मैं
या रब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं
हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं
किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे?
लाल-ओ-ज़मुर्रुदो--ज़र-ओ-गौहर नहीं हूँ मैं
रखते हो तुम क़दम…
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Added by Rina Badiani Manek on September 11, 2014 at 6:04pm —
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छः कदम पूरे और एक आधा
जेल की एक कोठरी
कि इन्सान बैठ-उठ सके
और आराम से सो भी सके ।
'इश्वर' एक बासी रोटी
'सब्र' अधपका सालन
चाहे तो जी भरकर
वह दोनों जून खा ले ।
और जेल के अहाते में
एक जोहड़ ' ज्ञान ' का
कि इन्सान हाथ- मुँह धो ले
(और कुछ मच्छर छान कर)
वह अंजुली भर पी ले ।
रूह का एक ज़ख़्म
एक आम रोग है ।
ज़ख़्म की नग्नता से
जो बहुत शर्म आये
तो सपने का टुकड़ा फाड़कर
उस ज़ख़्म को ढाँप लें…
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Added by Rina Badiani Manek on September 11, 2014 at 7:16am —
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कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दाँ नहीं होता
हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मोहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसाँ नहीं होता
बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले
दबाने के लिये हर दर्द ऐ नादाँ ! नहीं होता
यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें
कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्काँ नहीं होता
Added by Rina Badiani Manek on September 11, 2014 at 6:07am —
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कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता…
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Added by Rina Badiani Manek on September 10, 2014 at 8:02pm —
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हरी हरी दूब पर
ओस की बूंदे
अभी थी,
अभी नहीं हैं|
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीं नहीं हैं|
क्काँयर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बुँदों को ढूंढूँ?
सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है…
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Added by Rina Badiani Manek on September 10, 2014 at 6:25am —
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बस एक लम्हे का झगड़ा था
दरो-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़ जैसे काँच गिरता है-
हर इक शै में गयीं उड़ती हुई, जलती हुई किर्चें !
नज़र में, बात में, लहजे में, सोच और साँस के अंदर ।
लहू होना था इक रिश्ते का, सो वह हो गया उस दिन - !
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब,
किसी ने काट लीं नब्ज़ें-
न की आवाज़ तक कुछ भी,
कि कोई जाग न जाये !!
Added by Rina Badiani Manek on September 9, 2014 at 7:48pm —
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सबकुछ आँखों में है और कहता हूँ देखा क्या है
एक प्यासे का तसव्वुर है ये दुनिया क्या है
ज़िंदगी है कि हवाओं को पकड़ने का जुनूँ
ख़्वाब में चलने की आदत है तमन्ना क्या है
ज़ेह्न रोशन हो तो हो जाता है क़द भी ऊँचा
मेरे हमज़ाद की तस्वीर है साया क्या है
मेरा किरदार मोहब्बत, मिरी तहज़ीब वफ़ा
फिर भी सब पूछ रहे हैं मिरा मंशा क्या है
तीरगी नींद मुज़फ़्फ़र है मिरी आँखों की
मेरी ख़्वाबों का तबस्सुम है उजाला क्या है
मुज़फ़्फ़र…
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Added by Rina Badiani Manek on September 9, 2014 at 7:31pm —
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उन्होंने कहा- "हैण्ड्स अप!"
एक-एक अंग फोड़ कर मेरा
उन्होंने तलाशी ली!
मेरी तलाशी में मिला क्या उन्हें?
थोड़े से सपने मिले और चांद मिला
सिगरेट की पन्नी-भर,
माचिस-भर उम्मीद, एक अधूरी चिट्ठी
जो वे डीकोड नहीं कर पाये
क्योंकि वह सिन्धुघाटी सभ्यता के समय
मैंने लिखी थी-
एक अभेद्य लिपि में-
अपनी धरती को-
"हलो धरती, कहीं चलो धरती,
कोल्हू का बैल बने गोल-गोल घूमें हम कब तक?
आओ, कहीं आज घूरते हैं तिरछा
एक अग्निबान…
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Added by Rina Badiani Manek on September 9, 2014 at 5:15pm —
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मैं उड़ते हुए पंछियों को डराता हुआ
कुचलता हुआ घास की कलगियाँ
गिराता हुआ गर्दनें इन दरख़्तों की, छुपता हुआ
जिनके पीछे से
निकला चला जा रहा था वह सूरज
त'आकुब में था उसके मैं
गिरफ्तार करने गया था उसे
जो ले के मेरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था ।
Added by Rina Badiani Manek on September 6, 2014 at 6:32pm —
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एक ज़ंग आलूदा
तोप के दहाने में
नन्ही मुन्नी
चिड़िया ने
घोंसला बनाया है
तख़लीक़ - सृजन
ज़ंग आलूदा - जंग लगी
Added by Rina Badiani Manek on September 4, 2014 at 4:39pm —
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जगह नहीं और डायरी में
ये ऐश ट्रे पूरी भर गई है
भरी हुई है जले-बुझे अधकहे ख़यालों की राखो-बू से
ख़याल पूरी तरह से जो कि जले नहीं थे
मसल दिया या दबा दिया था, बुझे नहीं वो
कुछ उनके टुर्रे पड़े हुए हैं
बस एक दो कश लेके ही कुछ मिसरे रह गये थे
कुछ ऐसी नज़्में जो तोड़ कर फेंक दी थी उसमें
धुआँ न निकले
कुछ ऐसे अशआर जो मेरे ब्रांड के नहीं थे
वो एक ही कश में खांस कर, ऐश ट्रे में
घिस के बुझा दिए थे
इस ऐश ट्रे में
'ब्लेड' से काटी…
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Added by Rina Badiani Manek on August 31, 2014 at 5:40pm —
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उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई,
सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,
बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।
अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति :
मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई-
फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।
पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।
निर्विकार मरु तक को सींचा है
तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है
तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,
इसी अहंकार के मारे
अन्धकार में सागर के किनारे…
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Added by Rina Badiani Manek on August 31, 2014 at 8:04am —
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सब कहते हैं
कैसे गुरुर की बात हुई है
मैं अपनी हरियाली को खुद अपने लहू से सींच रही हूँ
मेरे सारे पत्तों की शादाबी
मेरे अपनी नेक कमाई है
मेरे एक शिगुफ़े पर भी
किसी हवा और किसी बारिश का बाल बराबर क़र्ज़ नहीं है
मैं जब चाहूँ खिल सकती हूँ
मेरे सारा रूप मिरी अपनी दरयाफ्त है
मैं अब हर मौसम से सर ऊँचा करके मिल सकती हूँ
एक तनवर पेड़ हूँ अब मैं
और अपनी ज़रखेज़ नुमू के सारे इम्कानात को भी पहचान रही हूँ
लेकिन मेरे अन्दर की ये बहुत पुरानी…
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Added by Rina Badiani Manek on August 30, 2014 at 4:44pm —
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सिर्फ़ एक लम्हा फूँकना
तुम मेरी साँस में साँस
मुझे जीवित कर देना
सिर्फ़ एक लम्हा
निहारना मेरी तरफ़
मुझमें पंख उगा देना
सिर्फ़ एक लम्हा
तुम मुझे देना शब्द एक
मुझे कालजयी बना देना
सिर्फ़ एक लम्हा धुन-सा
तुम मेई देह की
खाली बाँसुरी में उतरना
सातों राग भर देना
सिर्फ़ एक लम्हा ही जीकर
सदियों जीने से मुक्त हो पाऊँगी
सिर्फ़ एक लम्हे के लिए
मैं फिर-फिर वापस आऊँगी।
Added by Rina Badiani Manek on August 27, 2014 at 11:44am —
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