पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने--
काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग जला कर,
अपना रास्ता खोल लिया
तुमने एक समंदर हाथ में लेकर, मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया
मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया --
मौत…
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Added by Rina Badiani Manek on February 9, 2014 at 11:49pm —
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क़लम ने आज गीतों का क़ाफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क़ यह किस मुकाम पर आ गया है
देख नज़र वाले, तेरे सामने बैठी हूँ
मेरे हाथ से हिज्र का काँटा निकाल दे
जिसने अँधेरे के अलावा कभी कुछ नहीं बुना
वह मुहब्बत आज किरणें बुनकर दे गयी
उठो, अपने घड़े से पानी का एक कटोरा दो
राह के हादसे मैं इस पानी से धो लूंगी...
Added by Rina Badiani Manek on February 9, 2014 at 10:11pm —
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एक ख़याल को काग़ज़ पर दफ़नाया तो
इक नज़्म ने आँखें खोल के देखा
ढेरों लफ़्ज़ों के नीचे वो दबी हुई थी !
सहमी - सी, इक मद्धम-सी, आवाज़ की भाप
उड़ी कानों तक
क्यों इतने लफ़्ज़ों में मुझको चुनते हो
बाहें कस दी हैं मिस्रों की
तशबीहों के पर्दे में, हर जुंबिश तह कर देते हो !
इतनी ईंटें लगती हैं क्या एक ख़याल दफ़नाने में ?
Added by Rina Badiani Manek on February 9, 2014 at 5:57pm —
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થાય છે ખુલબંધ આપોઆપ બારીબારણાં
ચોતરફ હાંફી રહ્યાં છે ભૂખરાં સંભારણાં
નોબતો વાગે ગગનમાં સૂર્યના પધરામણાં
આજ પડછાયા પરસ્પર લૈ રહ્યાં ઓવારણાં
ડૂબતા શ્વાસોમાં તારા આગમનનો રવ તરે
જિંદગીમાં આમ તો ખોટી પડી કૈં ધારણા
ના કોઈ દીવાલ વચ્ચે ના કશુંયે આવરણ
બારણાં બસ બારણાં બસ બારણાં બસ બારણાં
હોઠ સીવી ક્યાં સુધી ચૂપચાપ ગુમસુમ બેસશો
એક આ તાઝા ગઝલથી લો કરી લો પારણાં
મૂક સાક્ષીભાવથી જોઈ રહેવાનું હવે
વાતમાંથી વાતમાંથી વાતની…
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Added by Rina Badiani Manek on February 9, 2014 at 5:17pm —
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क़दमों में भी थकान थी, घर भी क़रीब था
पर क्या करें कि अबके सफ़र ही अजीब था
निकले अगर तो चाँद दरीचे में रूक भी जाए
इस शह्रे-बेचिराग़ में किसका नसीब था
आंधीने उन रूतों को भी बेताज कर दिया
जिनका कभी हुमा सा परिंदा नक़ीब था
कुछ अपने आप सी है उसे कशमकश न थी
मुझमें भी कोई शख़्स उसी का रक़ीब था
पूछा किसी ने मोल तो हैरान रह गया
अपनी निगाह में कोई कितना ग़रीब था
मक़तल से आने वाली हवा को भी कब मिला
ऐसा कोई दरीचा कि जो…
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Added by Rina Badiani Manek on February 9, 2014 at 10:30am —
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A child said, What is the grass? fetching it to me with full
hands;
How could I answer the child?. . . .I do not know what it
is any more than he.
I guess it must be the flag of my disposition, out of hopeful
green stuff woven.
Or I guess it is the handkerchief of the Lord,
A scented gift and remembrancer designedly dropped,
Bearing the owner's name someway in the corners, that we
may see and remark, and say Whose?
Or I guess…
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Added by Rina Badiani Manek on February 8, 2014 at 7:29am —
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सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में
नज़र पे चिपके हुए हैं कुछ चिकने-चिकने से रोशनी के धब्बे
जो पलकें मूँदूँ तो चुभने लगती हैं रोशनी की सफ़ेद किरचें
मुझे मेरे मखमली अँधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप्प अँधेरों के फाए रख दो
यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे
Added by Rina Badiani Manek on February 8, 2014 at 5:13am —
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क़ब्रिस्तान में कल इक लाश पे
तन्हा इक जुगनू मन्डलाते देखा था
ताबूत के अन्दर चेहरे को पहचानने की कोशिश में था !
लाश की कोई हसरत शायद
उसके साथ ही दफ़न होने की कोशिश में
ताबूत में दाख़िल होने का कोई रास्ता ढूँढ रही थी !
Added by Rina Badiani Manek on February 6, 2014 at 9:29am —
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भारत की गलियों में भटकती हवा
चूल्हे की बुझती आग को कुरेदती
उधार लिए अन्न का
एक ग्रास तोड़ती
और घुटनों पे हाथ रखके
फिर उठती है...
चीन के पीले
और ज़र्द होंटों के छाले
आज बिलखकर
एक आवाज़ देते हैं
वह जाती और
हर गले में एक सूखती
और चीख मारकर
वह वीयतनाम में गिरती है...
श्मशान-घरों में से
एक गन्ध-सी आती
और सागर पार बैठे –
श्मशान-घरों के वारिस
बारूद की इस गन्ध को
शराब की गन्ध में भिगोते…
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Added by Rina Badiani Manek on February 6, 2014 at 7:57am —
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ख़्वाब तो देखता रहता हूँ मैं, मुश्किल ये है
आँख खुलने पे भी ख़्वाबों के चकत्ते नहीं जाते
आँख खुलती है तो कुछ देर महक रहती है पलकों के तले
सूख जाते हैं तो कुछ रोज़ में गिर जाते हैं, बासी होकर
ज़र्द से रेज़े हैं उड़ते हैं फिर आँखों में महीनों !
मेरी आँखों से दरिया भी गुज़रते हैं मगर
दाग़ लग जायें तो धुलते नहीं ख़्वाबों के कभी!
Added by Rina Badiani Manek on February 5, 2014 at 6:48pm —
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सुकूं भी ख़्वाब हुआ नींद भी है कम कम फिर
क़रीब आने लगा दूरियों का मौसम फिर
बना रही है तेरी याद मुझको सलके-गुहर
पिरो गयी मेरी पलकों में आज शबनम फिर
वो नर्म लहजे में कुछ कह रहा है फिर मुझसे
छिड़ा है प्यार के कोमल सुरों में मध्यम फिर
तुझे मनाऊं कि अपनी अना की बात सुनूं
उलझ रहा है मेरे फ़ैसलों का रेशम फिर
न उसकी बात मैं समझूं न वो मेरी नज़रें
मुआमलते-ज़ुबां हो चले है मुबहम फिर
ये आने वाला नया दुख भी उसके सर ही…
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Added by Rina Badiani Manek on February 5, 2014 at 5:59pm —
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थका थका सा बदन
रूह बोझिल बोझिल
कहां हाथ से कुछ गिरा, याद नहीं
न जाने यह कुछ चटख़ने की आवाज़ कहां से आई
और एहसास दराड़ों में कैसे जा पहुंचा
शहर वीरान, झरोके ख़ामोश , मुंडेरें चुप
ख़ामोशी उफ़ ! ख़लाओं का दम भी घुटने लगा
अचानक आ गई हो मौत वक़्त को जैसे
हाय ! रफ़्तार की नब्ज़ें रूकीं, दिल डूब गया
कहां शुरु हुए ये सिलसिले कहां टूटे
न इस सिरे का पता है न उस सिरे का पता
Added by Rina Badiani Manek on February 5, 2014 at 11:18am —
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आज मैंने अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपने मुझे जरूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े
- समझना वह मेरा घर है ।
Added by Rina Badiani Manek on February 4, 2014 at 11:09pm —
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मैं कब से कितना हूँ तन्हा तुझे पता भी नहीं
तिरा तो कोई ख़ुदा है मिरा ख़ुदा भी नहीं
कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं
कभी तो बात की उसने, कभी रहा ख़ामोश
कभी तो हँसके मिला और कभी मिला भी नहीं
कभी जो तल्ख़-कलामी थी वो भी ख़त्म हुई
कभी गिला था हमें उनसे अब गिला भी नहीं
वो चीख़ उभरी, बड़ी देर गूँजी, डूब गई
हर एक सुनता था लेकिन कोई हिला भी नहीं
तल्ख़-कलामी - कड़वी बातें
Added by Rina Badiani Manek on February 3, 2014 at 1:21pm —
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आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की
सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली
आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली
यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे
Added by Rina Badiani Manek on February 3, 2014 at 8:32am —
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जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,
मैं खड़ा हुआ हूँ दुनिया के इस मेले में,
हर एक यहां पर एक भुलावे में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौंचक्का सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जगह?
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम…
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Added by Rina Badiani Manek on February 2, 2014 at 8:46am —
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Somewhere I have never travelled, gladly beyond
any experience,your eyes have their silence:
in your most frail gesture are things which enclose me,
or which I cannot touch because they are too near
Your slightest look will easily unclose me
Though I have closed myself as fingers,
you open always petal by petal myself as Spring opens
(touching skilfully,mysteriously)her first rose
Or if your wish be to close me, I and
my life will shut…
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Added by Rina Badiani Manek on February 1, 2014 at 7:45am —
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तू किसी पे जाँ को निसार करदे कि दिल को क़दमों में डाल दे
कोई होगा तेरा यहाँ कभी ये ख़याल दिल से निकाल दे
मिरे हुक्मराँ भी अजीब हैं कि जवाब लेके वो आए हैं
मुझे हुक्म है कि सवाल का हमें सीधा सीधा सवाल दे
रगो-पै में जम गया सर्द ख़ूँ न मैं चल सकूँ न मैं हिल सकूँ
मिरे ग़म की धूप को तेज़ कर, मिरे ख़ून को तू उबाल दे
वो जो मुस्कुरा के मिला कभी तो ये फ़िक्र जैसे मुझे हुई
कहूँ अपने दिल का जो मुद्आ, कहीं मुस्कुरा के न टाल दे
ये जो ज़ह्न दिन…
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Added by Rina Badiani Manek on January 30, 2014 at 11:23am —
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सिर्फ़ दो रजवाड़े थे –
एक ने मुझे और उसे
बेदखल किया था
और दूसरे को
हम दोनों ने त्याग दिया था।
नग्न आकाश के नीचे –
मैं कितनी ही देर –
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा।
फिर बरसों के मोह को
एक ज़हर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा!
चल! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख! परे – सामने उधर
सच और झूठ के बीच –
कुछ ख़ाली जगह है...
Added by Rina Badiani Manek on January 30, 2014 at 10:31am —
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जीवन-बाला ने कल रात
सपने का एक निवाला तोड़ा
जाने यह खबर किस तरह
आसमान के कानों तक जा पहुँची
बड़े पंखों ने यह ख़बर सुनी
लंबी चोंचों ने यह ख़बर सुनी
तेज़ ज़बानों ने यह ख़बर सुनी
तीखे नाखूनों ने यह खबर सुनी
इस निवाले का बदन नंगा,
खुशबू की ओढ़नी फटी हुई
मन की ओट नहीं मिली
तन की ओट नहीं मिली
एक झपट्टे में निवाला छिन गया,
दोनों हाथ ज़ख्मी हो गये
गालों पर ख़राशें आयीं
होंटों पर नाखूनों के निशान
मुँह…
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Added by Rina Badiani Manek on January 30, 2014 at 1:15am —
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