तन्हाई तारीक कुआँ है
तेरा ख़याल जो बोले कहीं से
आसमान रोशन हो जाए
ख़ामोशी के दलदल में
कब से मेरे पाँव फँसे हैं !
Added by Rina Badiani Manek on February 21, 2014 at 11:41pm —
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हम, खाँसी , धुआँ , मच्छर , मक्खियाँ और जुएँ
और कुड़े का ढेर , और हड्डियों के पिंजर
सब प्रोटेस्ट करते हैं
और बताते हैं हमें यह बस्ती अलाट हुई है
कुछ सपनोंने रात को झुग्गियाँ बनाई है
यह झुग्गियाँ उठाओ क्योंकि यह 'अनओथोनराइज़्ड' हैं ।
Added by Rina Badiani Manek on February 21, 2014 at 9:38am —
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हमारी मुहब्बत की
क्लीनीकल मौत वाक़े हो चुकी है !
माज़रतों और उज़्र-ख़्वाहियों का
मसनूई तनफ़्फ़ुस
उसे कब तक ज़िंदा रखेगा
बेहतर यही है
कि हम मुनाफ़्फ़ित का प्लग निकाल दें
और एक ख़ूबसूरत जज़्बे को
बावकार मौत मरने दें !
माज़रतों - विवशता
उज़्र-ख़्वाहियों - बहाने बाज़ी
मसनूई तनफ़्फ़ुस - बनावटी साँस
मुनाफ़्फ़ित - पाखंड
बावकार - सम्मानजनक
Added by Rina Badiani Manek on February 20, 2014 at 10:21pm —
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જળ બનીને
સમુદ્રનો સંપર્ક કરવા
ટેલિફોન નંબર જોડું છું
ત્યાં રેતીનો અવાજ સંભળાય છે,
'માફ કરજો, આ રોંગ નંબર છે'.
પાંદડું બનીને
વૃક્ષ માટે પૂછું છું
ત્યારે
પાનખરનો ગુસ્સો ભભૂકી ઊઠે છે,
'તું નીચે ખરી પડ, તું નંબર ભૂલી ગયો છે.'
વાટ ભૂલેલા વટેમાર્ગુ બનીને
માર્ગ શોધું છું
ત્યારે વિકટ જંગલ કહે છે
'ટેલિફોનનું રિસીવર નીચે મૂક.'
હું
થાકેલો - હારેલો
વિચારું છું
ત્યારે
ચારે બાજુથી સંભળાય છે
ટેલિફોનની ઘંટડીઓનો…
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Added by Rina Badiani Manek on February 20, 2014 at 12:46pm —
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रात आधी खींचकर मेरी हथेली एक उँगली से लिखा था ’प्यार’ तुमने
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह…
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Added by Rina Badiani Manek on February 20, 2014 at 7:15am —
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ઇચ્છાનો સૂર્ય અસ્ત થવાની ઘડી છે આ
અજવાશ અસ્તવ્યસ્ત થવાની ઘડી છે આ
ધસમસતું ઘોડાપૂર નીરવતાનું આવતું ,
કાંઠાઓથી વિરક્ત થવાની ઘડી છે આ
આવી ગયો છે સામે શકુનિ સમો સમય
આજે ફરી શિકસ્ત થવાની ઘડી છે આ
થાકી ગયાં હલેસાં, હવે સઢ ચડાવી દો !
પાછા પવન-પરસ્ત થવાની ઘડી છે આ
હર ચીજ પર કળાય અસર પક્ષઘાતની,
જડ્વત નગર સમસ્ત થવાની ઘડી છે આ
લીલાશ જેમ પર્ણથી જુદી પડી જતી
એમ જ હવે વિભક્ત થવાની ઘડી છે આ
પ્રગટાવ પાણિયારે તું…
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Added by Rina Badiani Manek on February 19, 2014 at 5:33pm —
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रूके रूके से क़दम रूक के बारबार चले
क़रार ले के तेरे दर से बेक़रार चले
उठाये फिरते थे एहसान जिस्म का जाँ पर
चले जहाँ से तो ये पैरहन उतार चले
न जाने कौनसी मिट्टी वतन की मिट्टी थी
नज़र में, धूल, जिगर में लिए गुबार चले
सहर न आयी कई बार नींद से जागे
थी रात, रात की ये ज़िंदगी गुज़ार चले
मिली है शम'अ से रस्मे-आशिक़ी हम को
गुनाह हाथ पे ले कर गुनाहगार चले
गुलज़ार
Added by Rina Badiani Manek on February 19, 2014 at 4:56pm —
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कभी ऐसे पुरसुक़ून लम्हात भी आएंगे
जब
मैं भी उसी तरह सो जाऊंगी
वह ख़ामोशी
कितनी सुहानी होगी
मौत के बाद
अगरचे महज़ ख़ला है
सिर्फ़ तारीकी है मगर
वह तारीकी
इस करब-अंगेज़ उजाले से
यक़ीनन बेहतर होगी
क्योंकि
मैं
उन ज़िंदगीयों में से हूँ जिन्हें
हर सुबह निहायत क़लील सी रोशनी मिलती है
उम्मीद की इतनी-सी किरन कि
सिर्फ़ दिनभर ज़िंदा रह सकें
और जिस दिन
यह रोशनी भी न मिल सकी…
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Added by Rina Badiani Manek on February 19, 2014 at 1:37pm —
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दुआ तो जाने कौन-सी थी
ज़ह्न में नहीं
बस इतना याद है
कि दो हथेलियाँ मिली हुई थीं
जिनमें एक मेरी थी
और इक तुम्हारी
Added by Rina Badiani Manek on February 18, 2014 at 2:10am —
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कोई एक बंजारा था --
कन्धों पर गठरी लिए आया
इश्क का नाफा खरीद लिया मैंने
तो बोला -- अल्लाह की दुहाई है ।
विरह का एक खरल था--
मैं सुरमे सी पिस गई उसमें
तो नील गगन की सुंदरी --
चुटकी भर मांगने आई है ।
तिनकों की मेरी झोंपडी
कोई आसन कहाँ बिछाऊँ
कि तेरी याद की चिनगारी--
मेहमान बनकर आई है ।
मेरी आग मुझे मुबारक !
कि आज सूरज मेरे पास आया
और एक कोयला मांग कर उसने
अपनी आग सुलगाई है ।
Added by Rina Badiani Manek on February 17, 2014 at 11:37am —
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उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ
मेहरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ
डाल कर ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूँ
ज़ब्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या कसम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ
उस के पहलू में जो ले…
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Added by Rina Badiani Manek on February 15, 2014 at 10:47pm —
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यह ज़िंदगी एक रात थी
कि हम तो जागते रहे -
किस्मत को नींद आ गई.....
इस मौत से वाकिफ हैं हम
अक्सर हमारी ज़िंदगी -
उसका ज़िक्र करती रही......
आती है अपनी याद सी
जब सामने आकाश में -
है टूटता तारा कोई ......
Added by Rina Badiani Manek on February 15, 2014 at 4:23pm —
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हमारे दरम्याँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तिरे शानो पे कोई छत नहीं थी
मिरे ज़िम्मे कोई आंगन नहीं था
कोई वादा तिरी ज़ंजीरे-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रस्ते तिरी मर्ज़ी के ताबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाए तो
पूरा तसर्रूफ़ था ।
मगर जब आज तूने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझको
कि जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की !!
Added by Rina Badiani Manek on February 15, 2014 at 2:33pm —
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The line-storm clouds fly tattered and swift,
The road is forlorn all day,
Where a myriad snowy quartz stones lift,
And the hoof-prints vanish away.
The roadside flowers, too wet for the bee,
Expend their bloom in vain.
Come over the hills and far with me,
And be my love in the rain.
The birds have less to say for themselves
In the wood-world’s torn despair
Than now these numberless years the elves,
Although they are no less…
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Added by Rina Badiani Manek on February 14, 2014 at 5:10am —
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आड़ से होके घने पेड़ों के पीछे से कभी
और कभी शहर की दीवार से लगते-छुपते
कौड़ियालों से जो बच-बचके निकल आयी है रात
हाथ में चाँद की चमकीली अठन्नी ले कर
घर से भागी है किसी मेले में जाने के लिए
जी में आता है कि बस हाथ पकड़ कर इसको
सुबह के मेले में ले जाऊँ, खिलौने ले दूँ ।
Added by Rina Badiani Manek on February 13, 2014 at 9:50pm —
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उसी तरह से हर इक ज़ख़्म ख़ुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चाँद का देखे
मेरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाक़त जो
जब आँखें…
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Added by Rina Badiani Manek on February 13, 2014 at 5:37pm —
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શ્વાસ કેવળ શ્વાસ બીજું કૈં નહીં
ભાસ કેવળ ભાસ બીજું કૈં નહીં
પૃથ્વી સૂરજ ચંદ્ર ને ગ્રહમંડળી
રાસ કેવળ રાસ બીજું કૈં નહીં
મૃત્યુના પંથે સરકતી આ ક્ષણો
હ્રાસ કેવળ હ્રાસ બીજું કૈં નહીં
કોઈ લાંબા કાવ્ય જેવી જિંદગી
પ્રાસ કેવળ પ્રાસ બીજું કૈં નહીં
રિક્તતાના સૂર ઠાલવતા રહ્યા
વાંસ કેવળ વાંસ બીજું કૈં નહીં
દિગ્વિજય પામીને આદિલ છેવટે
દાસ કેવળ દાસ બીજું કૈં નહીં
Added by Rina Badiani Manek on February 13, 2014 at 10:56am —
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कभीकभी मैं ये सोचता हूँ कि मुझको तेरी तलाश क्यों है
कि जब हैं सारे ही तार टूटे तो साज़ में इरतेआश क्यों है
कोई अगर पूछता ये हमसे , बताते हम गर तो क्या बताते
भला हो सबका कि ये न पूछा कि दिल पे ऐसी ख़राश क्यों है
उठाके हाथों से तुमने छोड़ा , चलो न दानिस्ता तुमने तोड़ा
अब उल्टा हमसे तो ये न पूछो कि शीशा ये पाश-पाश क्यों है
अजब दोराहे पे ज़िंदगी है कभी हवस दिल को खींचती है
कभी ये शर्मिंदगी है दिल में कि इतनी फ़िक्रे-मआश क्यों है
न…
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Added by Rina Badiani Manek on February 11, 2014 at 6:32pm —
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ક્યાં લગી સમજણ વગરની આ ગણતરી બ્હાર - ભીતર ?
સૂર્ય વિશે યંત્રવત્ વાતો અને અંધાર ભીતર.
ના નહીં લાગે પછી આ ઝૂઝવું મઝધાર ભીતર,
એક વેળા તો કરી જો તું અડગ નિર્ધાર ભીતર.
કે પડ્યા ખોટા છતાં આનંદ પહેલી વાર ભીતર,
મેં રચ્યાં'તાં રંગ ને આ રૂપ ને આકાર ભીતર .
એક નાની ગૂંચને ઉકેલવા બેઠા ને જોયું ,
ચાલતી મિસ્કીન ભરમ ને ભેદની ભરમાર ભીતર .
Added by Rina Badiani Manek on February 11, 2014 at 5:33pm —
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छः कदम पूरे और एक आधा
जेल की एक कोठरी
कि इन्सान बैठ-उठ सके
और आराम से सो भी सके ।
'ईश्वर' एक बासी रोटी
'सब्र' अधपका सालन
चाहे तो जी भरकर
वह दोनों जून खा ले ।
और जेल के अहाते में
एक जोहड़ 'ज्ञान' का
कि इन्सान हाथ-मुँह धो ले
(और कुछ मच्छर छानकर)
वह अंजुली भर पी ले ।
रूह का एक ज़ख़्म
एक आम रोग है
ज़ख़्म की नग्नता से
जो बहुत शर्म आये
तो सपने का टुकड़ा फाड़कर
उस ज़ख़्म को ढाँप ले…
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Added by Rina Badiani Manek on February 10, 2014 at 7:56pm —
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