मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं…
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Added by Rina Badiani Manek on May 31, 2014 at 9:43pm —
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रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूं
उनको थामूं
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
या अपने कमरे में ठहरूं
चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
Added by Rina Badiani Manek on May 31, 2014 at 2:01am —
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ઝળહળ ઝબાક ઝળહળ અજવાશ જેવું શું છે
આ બંધ દ્વાર પાછળ અહસાસ જેવું શું છે
હોઠે ધરું જો આસવ પીવા ન થાય ઇચ્છા
તો કાં ગળું સુકાતું ? આ પ્યાસ જેવું શું છે
એક નામ લેતાં સાથે ભરચક ત્વચાથી પ્રસરે,
અત્તરની આછી આછી આ વાસ જેવું શું છે
ક્ષણમાં રચાઉં; ક્ષણમાં વિખરાઈ જઉં હવામાં ,
હોવું નથી જ તો આ આભાસ જેવું શું છે
તાજપ-લીલાશ-સળવળ-કુમળાશ ભીની એમાં
આંખોને અડકી જાતું આ ઘાસ જેવું શું છે
ખુલ્લી છે સીમ- માથે આકાશ ઝૂક્યું - વચ્ચે…
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Added by Rina Badiani Manek on May 25, 2014 at 5:24pm —
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નવી એક લાગણી એવી રીતે મનમાં ફરે
અજાણી કોઈ વ્યક્તિ આવ-જા ઘરમાં કરે
રીઢા આ કોઈ ગુનેગાર જેવા શ્વાસ સહુ
મળે આપણને હરજન્મે ને કાયમ છેતરે
નથી કાં કોઈ પણ પડકારતું એને જરી
ગલીમાં ચાંદની શકમંદ હાલતમાં ફરે
હું તો જોયા કરું જુદાઈની બારી થકી
સજા ખાધેલ આરોપી સમા દિવસો સરે
"મને તું મૌન દઈને શબ્દ તારો લઈ જજે"
પડી છે એક જાસાચિઠ્ઠી મારા ઉંબરે
Added by Rina Badiani Manek on May 25, 2014 at 4:58pm —
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मुझे सहल हो गईं मंजिलें वो हवा के रुख भी बदल गये
तिरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गये
वो लजाये मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर,
उड़ी जुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज मचल गये
वही बात जो न वो कह सके मिरे शेर-ओ-नज़्मे आ गई,
वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दहे-शराब में ढ़ल गये
वही आस्ताँ, वही जबीं , वही अश्क हैं, वही आस्तीं,
दिले-ज़ार तू भी बदल कहीं कि जहाँ के तौर बदल गये
तुझे चश्मे-मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी-ए-बज्म…
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Added by Rina Badiani Manek on May 24, 2014 at 10:16am —
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सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।
मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार
चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?
मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी—
तिनके की नोक-भर?
शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी—
किरण की ओक-भर?
मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,
लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैने आकाश से मांगी
आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।
सब से उधार मांगा, सब ने दिया ।
यों…
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Added by Rina Badiani Manek on May 21, 2014 at 8:12pm —
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બારી, ભીંતો, ઉંબરથી સતત દૂર ભાગે છે,
ધીરે ધીરે એ ઘરથી સતત દૂર ભાગે છે.
કોશિશ કરે એ આખો દિવસ શ્હેર જીતવા ,
ને સાંજે ખુદ નગરથી સતત દૂર ભાગે છે.
પોતાનો છાંયડો રહે અકબંધ એટલે ,
એક વૃક્ષ પાનખરથી સતત દૂર ભાગે છે ?
દરિયાની વચ્ચે જઈને રમે છે જે શખ્સ રોજ,
શા માટે એ લહરથી સતત દૂર ભાગે છે?
મંઝિલ ઉપર પહોંચીને હારી ગયો જે એ-
વળતી વખત સફરથી સતત દૂર ભાગે છે.
કોશિશ કરે છે જે બધાંને સાથે રાખવા ,
એ શખ્સ ખુદ ભીતરથી સતત દૂર ભાગે…
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Added by Rina Badiani Manek on May 21, 2014 at 7:21pm —
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कुछ ऐसा मोजज़ा लफ़्ज़ों के साथ हो जाये
जो मैं कहूँ वो ज़माने की बात हो जाये
हमारे पास कहाँ वक़्त जीतने का हुनर
जो दिन को ढूँढने निकलें तो रात हो जाये
बुरी चली है हवा हमसफ़र बदलने की
न जाने कौन कहाँ किस के साथ हो जाये
बस एक प्यार ही ऐसा बुरा खिलाड़ी है
जो चाल भी न चले और मात हो जाये
वो लाख जाने-सफ़र हो मगर उसे ये लगे
सफ़र में जैसे कोई यूँ ही साथ हो जाये
मैं तेरे काम का, दुनिया ! कभी न हो पाऊँ
तो मुझको लगता है…
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Added by Rina Badiani Manek on May 21, 2014 at 7:16pm —
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वक़्त को जितना गूंध सके हम, गूंध लिया
आटे की मिक़दार कभी बढ़ भी जाती है
भूख मगर इक हद से आगे बढ़ती नहीं
पेट के मारों की ऐसी ही आदत है......
भर जाये तो दस्तरख़्वान से उठ जाते हैं......
आओ, अब उठ जायें दोनों
कोई कचहरी का खूंटा दो इन्सानों को दस्तरख़्वान पे कब तक बांध के रख सकता है
क़ानूनी मोहरों से कब रूकते हैं, या कटते हैं रिश्ते
रिश्ते राशन कार्ड नहीं हैं !!!
Added by Rina Badiani Manek on May 15, 2014 at 4:41pm —
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कब तक दिल की ख़ैर मनायें, कब तक रह दिखलाओगे
कब तक चैन की मोहलत दोगे, कब तक याद न आओगे
बीता दीद-उमीद का मौसम, ख़ाक उड़ती है आँखों में
कब भेजोगे दर्द का बादल , कब बरखा बरसाओगे
अहदे-वफ़ा या तर्के-मुहब्बत, जी चाहो सो आप करो
अपने बस की बात ही क्या है, हमसे क्या मनवाओगे
किसने वस्ल का सूरज देखा , किस पर हिज्र की रात ढली
गेसुओंवाले कौन थे क्या थे, उनको क्या जतलाओगे
'फ़ैज़' दिलों के भाग में है घर बसना भी, लुट जाना भी
तुम उस हुस्न के…
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Added by Rina Badiani Manek on May 15, 2014 at 12:40pm —
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जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|
अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |
क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|
यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी…
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Added by Rina Badiani Manek on May 12, 2014 at 11:16am —
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मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।
अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच…
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Added by Rina Badiani Manek on May 12, 2014 at 11:01am —
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कई पिंजरों का क़ैदी हूं
कई पिंजरों में बसता हूं
मुझे भाता है क़ैदें काटना
और अपनी मरज़ी से चुनाव करते रहना
अपने पिंजरों का
मीयादें तय नहीं करता में रिश्तों की
असीरी ढूँढता हूं मैं
असीरी अच्छी लगती है !!!
Added by Rina Badiani Manek on May 11, 2014 at 6:31pm —
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पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ।
उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ।
ताना : ताना मज़बूत चाहिए : कहाँ से मिलेगा?
पर कोई है जो उसे बदल देगा,
जो उसे रसों में बोर कर रंजित करेगा, तभी तो वह खिलेगा।
मैं एक गाढ़े का तार उठाता हूँ :
मैं तो मरण से बँधा हूँ; पर किसी के-और इसी तार के सहारे
काल से पार पाता हूँ।
फिर बाना : पर रंग क्या मेरी पसन्द के हैं?
अभिप्राय भी क्या मेरे छन्द के हैं?
पाता हूँ कि मेरा मन ही तो गिर्री है, डोरा है;
इधर से उधर, उधर से इधर; हाथ…
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Added by Rina Badiani Manek on May 11, 2014 at 9:11am —
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गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
दिल पे उतरेंगे वही ख़्वाब अज़ाबों की तरह
राख के ढेर पे अब रात बसर करनी है
जल चुके हैं मेरे ख़ीमे, मेरे ख़्वाबों की तरह
साअते-दीद के आरिज़ हैं गुलाबी अब तक
अव्वलीं लम्हों के गुलनार हिजाबों की तरह
वह समंदर है तो फिर रूह को शादाब करें
तिश्नगी क्यों मुझे देता है सराबों की तरह
ग़ैर मुमकिन है तेरे घर के गुलाबों का शुमार
मेरे रिसते हुए ज़ख्मों के हिसाबों की तरह
याद तो होंगी वो बातें…
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Added by Rina Badiani Manek on May 10, 2014 at 5:25pm —
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બારી ખૂલી ગઈ છે
કિંતુ સુગંધ અહીંનો
રસ્તો ભૂલી ગઈ છે....
રસ્તો ભૂલી જવામાં
કેવી અજબ મજા છે
અમથી જ આવજામાં.
અમથી જ આવજા છે
મંજિલ નથી કે રસ્તો
ચારે તરફ હવા છે.....
ચારે તરફ હવાઓ
મ્હેકી પડે અચાનક
સ્પર્શીલી શક્યતાઓ.
સ્પર્શીલી શક્યતા પર
ગમતું ગણિત ગણું છું
ઇચ્છાનાં ટેરવાં પર.....
ઇચ્છાનાં ટેરવાંથી
આકાશ ઊંચકું છું
ઊઘડું દશે દિશાથી.
ઊઘડું ને વિસ્તરું છું
આંખો ઉઘાડી…
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Added by Rina Badiani Manek on May 9, 2014 at 5:16pm —
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પકડાય ના કોઈ રીતે એ કૈંક તો હશે
સમજાય ના કોઈ રીતે એ કૈંક તો હશે
છે આવરણ કોઈ ઉદાસીનું ખુશી ઉપર
હરખાય ના કોઈ રીતે એ કૈંક તો હશે
ઝરણાંની ખળખળ જાણે પૂછે, કૂદી ગઈ પછી
ઝરણાય ના કોઈ રીતે એ કૈંક તો હશે
રંગો ભરેલી સાંજ સાથે યાદ મખમલી
કરમાય ના કોઈ રીતે એ કૈંક તો હશે
સજદા કરું કે હાથ ફેલાવું દુઆઓમાં
પડઘાય ના કોઈ રીતે એ કૈંક તો હશે
Added by Rina Badiani Manek on May 7, 2014 at 7:14pm —
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नाव में बहते-बहते इक नज़्म मेरी पानी में गिरी और गलने लगी
काग़ज़ का पैराहन था
मेरी तहरीर न थाम सका
सियाही फैल गई पहले
फिर लफ़्ज़ गले, और एक-एक कर के डूब गये
टूटते मिसरों की हिचकी, कुछ दूर सुनाई दी और फिर......
बाकीमांदा....
कुछ मानी थे
कुछ देर किसी तलछट की तरह
पानी की सतह पर तैरे और फिर बहते-बहते,
आंख से ओझल होते गये !
गुलज़ार
Added by Rina Badiani Manek on May 5, 2014 at 5:12pm —
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મનાલીના પહાડી ઝરણામાં
ઝબોળાતા દરેક પગને
કંઈ ઝાંઝરના ઓરતા હોતા નથી
એ તો
જળના ગર્ભમાં સચવાયેલી
સ્પર્શની ભાષા ઉકેલતા હોય છે,
પોતાનું એકાંત સાચવીને ....
જળ એનો હાથ પકડી
ઉડાડે છે આકાશમાં
બાંધે છે વાદળાંની જેમ રમત રમતમાં
અને ઝરણું
પોતાના ખળખળ વહનમાં;
સાચવે છે
સાગરની દિશાનો નકશો
માણસના પગને ગતિશીલ બનાવતો.....
Added by Rina Badiani Manek on May 3, 2014 at 10:24am —
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तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा
वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में
ह्रदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा
तू ढूँढता था जिसे जाके बृज में गोकुल में
वो श्याम तो किसी मीरा की चश्मे-तर में रहा
जो गीत बाँटता फिरता था सारी दुनिया में
किसे पता है वो किन आँसुओं के घर में रहा
वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की
मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा
नहीं शराब में आया लहू में…
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Added by Rina Badiani Manek on May 3, 2014 at 10:05am —
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