In love, nothing exists between heart and heart.
Speech is born out of longing,
True description from the real taste.
The one who tastes, knows;
the one who explains, lies.
How can you describe the true form of Something
In whose presence you are blotted out?
And in whose being you still exist?
And who lives as a sign for your journey?
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Added by Rina Badiani Manek on April 29, 2014 at 8:03pm —
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हमने सब शेर में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न तुम्हारे थे
रंगों ख़ुश्बू के, हुस्नो-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे थे
तेरे क़ौलो-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे
जब वो लालो-गुहर हिसाब किए
जो तरे ग़म ने दिल पे वारे थे
मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्ते-फ़लक में तारे थे
उम्रे-जाविदे की दुआ करते थे
‘फ़ैज़’ इतने वो कब हमारे थे
सुख़न - संवाद
इस्तिआरे - रूपक
क़ौलो-क़रार -…
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Added by Rina Badiani Manek on April 28, 2014 at 10:32am —
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દેખાવા અને હોવાની
વચ્ચેનો
સંભાવનાનો પૂલ
પાર કરી શકું
તો........
વિવશતાના
લાંબા ઇતિહાસથી
ઘેરાયેલો છે સમય......
કેટલીક વાતો ને
શબ્દોની સજા
ન દેવાય
એ જ.............
Added by Rina Badiani Manek on April 25, 2014 at 7:41pm —
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सुकूं भी ख़्वाब हुआ नींद भी है कम कम फिर
क़रीब आने लगा दूरियों का मौसम फिर
बना रही है तेरी याद मुझको सलके-गुहर
पिरो गयी मेरी पलकों में आज शबनम फिर
वो नर्म लहजे में कुछ कह रहा है फिर मुझसे
छिड़ा है प्यार के कोमल सुरों में मद्धम फिर
तुझे मनाऊँ कि अपनी अना की बात सुनूं
उलझ रहा है मेरे फ़ैसलों का रेशम फिर
न उसकी बात में समझुं न वो मेरी नज़रें
मुआमलाते-ज़ुबां हो चले है मुबहम फिर
ये आनेवाला नया दुख भी उसके सर ही…
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Added by Rina Badiani Manek on April 25, 2014 at 5:45pm —
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कोई किसी से खुश हो, और वो भी बारहा हो, ये बात तो ग़लत है
रिश्ता लिबास बनकर, मैला नहीं हुआ हो, ये बात तो ग़लत है
वो चाँद राह गुज़र का, साथी जो था सफ़र का, था मौजिज़ा नज़र का,
हर बार की नज़र से, रौशन वो मौजिज़ा हो, ये बात तो ग़लत है
है बात उसकी अच्छी, लगती है दिल को सच्ची, फिर भी है थोड़ी कच्ची ,
जो उसका हादिसा है, मेरा भी तजुर्बा हो, ये बात तो ग़लत है
दरिया है बहता पानी, हर मौज है रवानी, रूकती नहीं कहानी ,
जितना लिखा गया है, उतना ही वाक़या हो,…
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Added by Rina Badiani Manek on April 25, 2014 at 1:02pm —
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એક સુખનું નગર છે આઘેરૂં
સ્વપ્ન જોયું હતું મેં આછેરૂં
સહેજ પડછાયો, સહેજ માણસ છે,
ચિત્ર દોર્યું છતાંય આછેરું.
ચામડીમાં વણાઈ એકલતા,
હોય ચાદર તો એને ખંખેરું.
ક્યાંય દેખાય છે ધજા જેવું ?
ગામ પહેલાં તો આવશે દેરું !
જિંદગી નામની કુંવરબાઈ,
ને ફજેતીમાં રોજ મામેરું !
Added by Rina Badiani Manek on April 23, 2014 at 6:45pm —
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ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाकात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यक़ीं कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है, कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली- सी नहीं, कुछ कम है
तवक़्क़ो -…
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Added by Rina Badiani Manek on April 22, 2014 at 7:02pm —
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मे'यार समाअत को बढ़ाने के लिए है
होंठों पे ख़मोशी भी सुनाने के लिए है
कुछ तू ही मेरे कर्ब का मफ़हूम समझ ले
हँसता हुआ चेहरा तो ज़माने के लिए है
अब शौक़-ए-तमाशा नहीं रखती मेरी आँखें
ये आईना दुनिया को दिखाने के लिए है
दामन तेरा झोंके की तरह हाथ न आया
ख़ुश्बू भी तेरी मुझको जलाने के लिए है
मैं अपनी तमन्नाओं के मक़्तल में खड़ा हूँ
अपना ही लहू प्यास बुझाने के लिए है
हर कोई यहाँ अपनी ही दस्तार उछाले
ये शो'बदा क़ामत को…
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Added by Rina Badiani Manek on April 20, 2014 at 9:38pm —
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वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है
ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है
जो मुझको ज़िंदा जला रहे हैं वो बेख़बर हैं
कि मेरी ज़जीर धीरेधीरे पिघल रही है
मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन
मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है
न जलने पाते थे जिसके चूल्हे भी हर सवेरे
सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है
मैं जानता हूँ कि ख़ामशी में ही मस्लहत है
मगर यही मस्लहत मेरे दिल को खल रही है
कभी तो इंसान ज़िंदगी की…
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Added by Rina Badiani Manek on April 19, 2014 at 4:00pm —
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I do not love you except because I love you;
I go from loving to not loving you,
From waiting to not waiting for you
My heart moves from cold to fire.
I love you only because it's you the one I love;
I hate you deeply, and hating you
Bend to you, and the measure of my changing love for you
Is that I do not see you but love you blindly.
Maybe January light will consume
My heart with its cruel
Ray, stealing my key to true…
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Added by Rina Badiani Manek on April 14, 2014 at 7:57am —
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नज़्म का तज़्ज़िया करते करते
पूरा गुलाब ही छील दिया
मिसरे अलग, अल्फ़ाज़ अलग
डंठल-सा बचा, न खाने को, न सूँघने को !
ख़ुश्बू कुछ हाथ पे मसली गई
कुछ मिट्टी में गिर के गर्द हुई
नज़्म पढ़ूँ तो वो भी अब
ख़ाली बर्तन सी बजती है !!
गुलज़ार
Added by Rina Badiani Manek on April 13, 2014 at 10:40am —
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A child said, What is the grass? fetching it to me with full
hands;
How could I answer the child?. . . . I do not know what it
is any more than he.
I guess it must be the flag of my disposition, out of hopeful
green stuff woven.
Or I guess it is the handkerchief of the Lord,
A scented gift and remembrancer designedly dropped,
Bearing the owner's name someway in the corners, that we
may see and remark, and say Whose?
Or I guess…
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Added by Rina Badiani Manek on April 12, 2014 at 8:09am —
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सूरज को सारे खून माफ है
दुनिया के हर इन्सान का वह रोज़ 'एक दिन' कतल करता है
और हर एक उम्र का एक टुकड़ा रोज़ ज़िबह होता है
इन्सान के इख्तियार में बस इतना है -
कि ज़िबह हुए टुकड़े को वह घबरा के फेंक दे, और डरे,
या निडर उसे कबाब की तरह भूने, खाये
और साँसों की शराब पीता वह अगले टुकड़े का इन्तज़ार करे........
Added by Rina Badiani Manek on April 10, 2014 at 6:59pm —
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उधर देखो हवा के बाज़ुओं में
एक आहट क़ैद है
गुंजान पेड़ों की कतारों में
नयी पगडंडियों की सूनी आँखें
नुक़ूशे-पा तुम्हारे ढूँढती हैं
ज़मीं करवट बदलने के लिए बेचैन सी है
आसमाँ पर रात की अफ़वाज तलवारें लिये
सूरज की जानिब बढ़ रही हैं
अगर तुम चाहते हो
इस ज़मीं पर हुक्मरानी हो तुम्हारी
फ़जूँ कुछ सरगिरानी हो तुम्हारी
तो मेरा बात मानो
हवा के बाज़ुओं में क़ैद इस आहट को
अब आज़ाद कर दो
शब्दार्थ
ख़ुदकलामी - ख़ुद से…
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Added by Rina Badiani Manek on April 9, 2014 at 10:30am —
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the flesh covers the bone
and they put a mind
in there and
sometimes a soul,
and the women break
vases against the walls
and the men drink too
much
and nobody finds the
one
but keep
looking
crawling in and out
of beds.
flesh covers
the bone and the
flesh searches
for more than
flesh.
there's no chance
at all:
we are all trapped
by a singular
fate.
nobody ever…
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Added by Rina Badiani Manek on April 6, 2014 at 7:29am —
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सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।
मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार
चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?
मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी—
तिनके की नोक-भर?
शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी—
किरण की ओक-भर?
मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,
लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैने आकाश से मांगी
आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।
सब से उधार मांगा, सब ने दिया ।
यों…
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Added by Rina Badiani Manek on April 4, 2014 at 10:44am —
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આવ, દરિયો થૈને મુજને જળરૂપે તું સાંભરે
મન હલેસાતું રહે, ખળખળ રૂપે તું સાંભરે .
જન્મ જન્માંતરની આ તૂટી તરસ લઈ ક્યાં જવું ?
મુલ્ક સહરાનો અને મૃગજળ રૂપે તું સાંભરે.
કેટલી નૌકા ડૂબી ને કેટલા કાંઠા તૂટ્યા!
રેત પર અંકાયેલી હરપળ રૂપે તું સાંભરે .
નાવ હંકારી નથી ને ત્યાં વમળ સર્જાય છે,
શાંત દરિયાના એ ઊંડા જળ રૂપે તું સાંભરે .
Added by Rina Badiani Manek on April 2, 2014 at 12:17pm —
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