थोड़ी थोड़ी सी बरसातें थी या शुरू की सर्दियाँ थी , मुझे याद भी नही! दिल्ली में अगर आसमान से बर्फ़ भी घिंस कर गिर रही होती तो भी मुझे कहाँ याद होता । याद ना रहना शिकायत नही थी याद रहता तो शिकायत होती । सिर्फ़ इस बात के अलावा कुछ याद नही था कि गुलज़ार साहब मेरे घर से महज़ चार क़दम की दूरी पर धूनी रमाएहुए थे। पता नही क्यूँ लेकिन मुझे हमेशा वो रमते जोगी से ही लगते है। सफ़ेद कुर्ते पजामे में पेरों में पहनी मोजड़ी में । सर्दियों में ऊपर शाल लपेटे । किसी दरविश की तरह अपनी ही बातों में मलँग। ख़ैर मुझे एक हफ़्ते पहले से ही काटो तो ख़ून नही था । कभी सारी खाल सफ़ेद पड़ जाती थी ओर कभी सारा ख़ून दौड़ कर नसों में फैल जाता, मुँह लाल हो जाता । उनका एक play था सीरी फ़ोर्ट ओडिटोरियम में ओर उन्हें आना था । ख़्वाब देखिए कैसे कैसे। जल्दी नही थोड़ी देर से ही आएँगे जब सारी भीड़ ओडी के अंदर चली जाएगी , तो वही सीड़ियों पर कोने में एक जगह पकड़ ली । भीड़ मत पूछिए जैसे दिल्ली सारी धक्के खाने वही पहुँची हुई थीं। ग़ुस्से से मेरा सर भिनभिना गया ओर दातों में चिड़ लग गई । ख़ैर प्ले शुरू हुआ पर वाच मैन ने जब मुझे तीन बार टोक दिया ओर एक बार तो मेरा टिकट भी माँग लिया तो मुझे आख़िर सिडियाँ छोड़नी ही पड़ा। ख़्वाब का माथा वही फोड़ा ।
धीरे धीरे हाल पूरा ही भर गया कुछ लोग खड़े भी थे । प्ले शुरू हुआ "लकीरें " । गुलज़ार साहब का लिखा हुआ नाटक । गुलज़ार साहब के हर्फ़ हाल में गूँजने लगे मुझे उनमें तैरना आता कहाँ था डूबना ही पड़ा । लेकिन उन्हें देखने का ख़्वाब डूबने भी कहाँ देता।
शायद ग्रीन रूम में होंगे .. या शायद play ख़त्म होने पर आएँगे .. या शायद आएँगे ही नही ।
नब्ज़ डूबती जाती थी । अब एक ओर ख़्वाब का मज़मून देखिए आते आते अपनी एक डायरी भी उठा ली थी कि शायद उनके ऑटग्राफ़ मिल जाए । हज़ार लोग ओर उनकी उनसे दोगनी ख़्वाहिशें ओर मेरी ख़्वाहिश कि उनका ऑटग्ग्राफ़ मिल जाए । फिर भी ख़्वाहिश तो ख़्वाहिश थीं , मेरे मर जा कहने से मर तो नही जाती । मुझसे ज़्यादा अड़ कर बैठी थी । एक अज़ीब सी बेचैनी से हर शक्स बाबस्ता था वहाँ। कहाँ है गुलज़ार साहब।
तभी कुछ हलचल सी मची । लोग अपनी सीटों से कूद पड़ने को उछल पड़े ।
वहाँ बैठे है।
कहाँ उस तरफ़ कोने में ।
लोग बालकनी से कूदने को तैयार थे।
उन्हें दूर से देखा । देखा भी क्या , बस ये था वहाँ बैठे थे..
दूर तक एक नूर सा कौंधा।
तीन चार लोगों के बीच में बैठे थे गुलज़ार साहब । दूर थे काफ़ी लेकिन वही थे। ना किसी ग्रीन रूम में । ना अलग से । सबके बीच । सबके बीच बेठ कर अपना ही play ऐसे देख रहे थे जैसे किसी ओर का हो । जैसे वो अपने ही मुरीद हो । जैसे हम में से ही कोई हो । ख़्वाब सच हुआ था । बेहोशी टूटने में वक़्त लगा था, लेकिन हाँ ख़्वाब तो पूरा हुआ था।
स्टेज पर आए ओर उनकी वही ताज़ी आवाज़ पूरे हॉल में गूँज गयी । ख़ुद से ज़्यादा औरों की बातें की .. play से जुड़े एक एक शकस की बात की । ऐसा खुलूस आसमान से ही खुलता है , ऐसा शकस ज़मीन को आसमान से ही मिलता है । लौट आना ज़रूरी था । आँखो से रूह तक लहू ठंडा था । कैसे सड़क पार की , कैसे घर की डोर- बेल बजाई याद नही । शिकायत नही थी । होश रहता तो शिकायत होती । तब से एक नया ख़्वाब आँखों में पल रहा है उनसे मिलने का ।देखे कब पूरा होता है।
ख़्वाब के ख़्वाब तो देखो
ज़मीन मिली नही
कि आसमान छूने को बेताब है ..
ऐसा नही कि समझाया नही मैंने
लेकिन क्या करे ख़्वाब तो ख़्वाब है ।
ज्योति आर्या ।।
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