आ गए तुम ?
द्वार खुला है,
अंदर आओ..!
पर तनिक ठहरो..
ड्योढी पर पड़े पायदान पर,
अपना अहं झाड़ आना..!
मधुमालती लिपटी है मुंडेर से,
अपनी नाराज़गी वहीँ उड़ेल आना..!
तुलसी के क्यारे में,
मन की चटकन चढ़ा आना..!
अपनी व्यस्ततायें,
बाहर खूंटी पर ही टांग आना..!
जूतों संग,
हर नकारात्मकता उतार आना.!
बाहर किलोलते बच्चों से,
थोड़ी शरारत माँग लाना..!
वो गुलाब के गमले में, मुस्कान लगी है..
तोड़ कर पहन आना..!
लाओ,
अपनी उलझनें…
Continue
Added by Juee Gor on September 18, 2016 at 8:09pm —
No Comments
कभी किसी शाम को,
दिल क्यों इतना तनहा होता है
कि भीड़ का हर ठहाका
कर देता है
कुछ और अकेला,
और चाँद जो देखता है सब
पर चुप रहता है,
क्यों नहीं बन जाता
उस टेबल का पेपरवेट
जहाँ जिंदगी की किताब
के पन्ने उलटती जाती है,
वक़्त की आंधी,
या क्यों नहीं बन जाता
उस नदी में एक संदेशवाहक कश्ती
जिसके दोनों किनारे
कभी नहीं मिलते,
बस ताकते हैं एक टक
एक दूसरे को, सालों तक,
वक़्त के साथ उनकी धुंधलाती आँखों का
चश्मा भी तो…
Continue
Added by Juee Gor on September 8, 2016 at 10:31pm —
No Comments
बेतहाशा घबरा के तुमने
रौशनी के बदन को मोड़ लिया
मै टेबल पर इक नज़्म पैदा कर रहा था
तुम्हारे चहरे पर ,वो टेबल लेम्प की रौशनी
मेरे लफ्जों को जिंदा करने लगी
तुम्हारे चहरे से नज़्म पोछकर रौशनी ने
मेरे कोरे कागज़ पर उड़ेल कर रख दी
मुझे बेवजह शायर बना रखा है दुनिया ने..
Added by Juee Gor on September 24, 2015 at 9:22pm —
2 Comments
मैं ने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से;
रंग गई क्षणभर,
ढलते सूरज की आग से।
मुझ को दीख गया:
सूने विराट् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!
Added by Juee Gor on May 16, 2015 at 10:01pm —
No Comments
"उसने सौपा नहीं मुझको मेरे हिस्से का
वज़ूद
उसकी कोशिश है कि मुझसे मेरी रंजिश
भी रहे"
Added by Juee Gor on May 14, 2015 at 11:09pm —
No Comments
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ
बचपने का साथ, फिर एक से दोनों के दुख
रात का और मेरा आँचल भीगता है साथ-साथ
वो अजब दुनिया कि सब खंज़र-ब-कफ़ फिरते हैं और
काँच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ
बारिशे-संगे-मलामत में भी वो हमराह है
मैं भी भीगूँ, खुद भी पागल भीगता है साथ-साथ
लड़कियों के दुख अजब होते हैं, सुख उससे अज़ीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा…
Continue
Added by Juee Gor on April 29, 2015 at 7:47pm —
No Comments
अंधेरे को मैंने
कस कर लपेट लिया
आगोश में
भींच लिया सीने से इस कदर
कि उसकी सूरत दिखलाई न पड़े.
पीछे खडी
कसमसाई सी रौशनी
तकती थी मुझे
अँधेरे से जल गयी लगती है रोशनी!!
Added by Juee Gor on April 18, 2015 at 10:18pm —
No Comments
मौत कितनी आसान होती
अगर हम जिस्म के साथ
दफ़न कर पाते
यादों को भी...
...?
Added by Juee Gor on April 15, 2015 at 9:45pm —
No Comments
बाढ़ डूबी झोंपड़ियों
के आसमान पर
हेलिकॉटर उड़ान भरता है
दया के क़तरे टपकाता हुआ
बाढ़ बढ़ाता हुआ
बाँस लेकर जूझ रही है
झोपड़ी
फिर खड़ी होने को
टीन की चद्दर खड़खड़ाती है
छप्पर के धुएं से
आसमान में
आग लग जाती है
Added by Juee Gor on April 14, 2015 at 11:00pm —
No Comments
एक दिन समटते हुए अपने खालीपन को
मैंने ढूँढा था उस लड़की को,
जो भागती थी तितलियों के पीछे
सँभालते हुए अपने दुपट्टे को
फिर खो जाया करती थी
किताबों के पीछे,
गुनगुनाते हुए ग़ालिब की कोई ग़ज़ल
अक्सर मिल
जाती थी वो लाईब्ररी में,
कभी पाई जाती थी घर के बरामदे में
बतियाते हुए प्रेमचंद और शेक्सपियर
से,
कभी बारिश में तलते पकौड़ों
को छोड़कर
खुले हाथों से छूती थी आसमान,
और जोर से सांस खींचते हुए
समो लेना चाहती थी पहली…
Continue
Added by Juee Gor on April 4, 2015 at 10:59am —
No Comments
एक लम्हा ज्यों सदी और इक सदी जैसे
कि पल
कौन समझेगा यहाँ अब वस्लो- फुरकत के हिसाब
जब कभी माज़ी ने पूछे दिल से कुछ
मुश्किल सवाल
तब ज़माने-हाल ने ही दे दिए आसां जवाब
-- Unknown
Added by Juee Gor on April 2, 2015 at 9:46am —
No Comments
तुम्हारे साथ...
मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है
मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है,
झपट लेता है, अंटी से
कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की
आहट भी नहीं होती,
खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ मैं
गिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते हैं
"तेरी गुजरी हुई पुश्तों का कर्जा है, तुझे किश्तें
चुकानी है "
ज़बरदस्ती कोई गिरवी रख लेता है, ये कह कर
अभी 2-4 लम्हे खर्च करने के लिए रख ले,
बकाया उम्र के खाते में लिख देते हैं,
जब…
Continue
Added by Juee Gor on March 29, 2015 at 11:13pm —
No Comments
मैंने
हवाओं के छोर से
बाँध दिया
इच्छाओं का दामन
देखती हूँ
वे कहाँ तक जाती हैं ।
Added by Juee Gor on March 27, 2015 at 8:25pm —
No Comments
समुद्र के सपनों में मछलियाँ नहीं
सीप घौंघे, जलीय जीव जन्तु नहीं
किश्तियाँ और जहाज नहीं
जहाजों की मस्तूल नहीं
लहरों के उठना ,सिर पटकना नही
नदियाँ नहीं , उनकी मस्तियाँ नहीं
समुद्र सपने देखता है
जमीन का, उस पर चढे पहाडों का
उन सबका जिन्हें नदियाँ छोड
चलीं आईं थीं उस के पास
समुद्र के सपने में पानी नहीं होता
Added by Juee Gor on March 10, 2015 at 11:01pm —
No Comments
वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है
ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है
जो मुझको ज़िंदा जला रहे हैं वो बेख़बर हैं
कि मेरी ज़ंजीर धीरे-धीरे पिघल रही है
मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन
मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है
न जलने पाते थे जिसके चूल्हे भी हर सवेरे
सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है
मैं जानता हूँ की ख़ामशी [1] में ही मस्लहत [2] है
मगर यही मस्लहत मिरे दिल को खल रही है
कभी तो इंसान ज़िंदगी की करेगा इज़्ज़त
ये एक…
Continue
Added by Juee Gor on March 4, 2015 at 12:27pm —
No Comments
मैं तो झोंका हूँ हवाओं का उड़ा ले जाऊँगा
जागती रहना, तुझे तुझसे चुरा ले जाऊँगा
हो के क़दमों पर निछावर फूल ने बुत से कहा
ख़ाक में मिल कर भी मैं ख़ुश्बू बचा ले जाऊँगा
कौन-सी शै तुझको पहुँचाएगी तेरे शहर तक
ये पता तो तब चलेगा जब पता ले जाऊँगा
क़ोशिशें मुझको मिटाने की मुबारक़ हों मगर
मिटते-मिटते भी मैं मिटने का मज़ा ले जाऊँगा
शोहरतें जिनकी वजह से दोस्त-दुश्मन हो गए
सब यहीं रह जाएंगी मैं साथ क्या ले जाऊँगा
Added by Juee Gor on March 4, 2015 at 12:18pm —
No Comments
वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है
ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है
जो मुझको ज़िंदा जला रहे हैं वो बेख़बर हैं
कि मेरी ज़ंजीर धीरे-धीरे पिघल रही है
मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन
मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है
न जलने पाते थे जिसके चूल्हे भी हर सवेरे
सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है
मैं जानता हूँ की ख़ामशी [1] में ही मस्लहत [2] है
मगर यही मस्लहत मिरे दिल को खल रही है
कभी तो इंसान ज़िंदगी की करेगा इज़्ज़त
ये एक…
Continue
Added by Juee Gor on March 4, 2015 at 12:14pm —
No Comments
जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को
सौ चराग अँधेरे में जगमगाने लगते हैं
फूल क्या शगूफे क्या चाँद क्या सितारे क्या
सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं
रक्स करने लगतीं हैं मूरतें अजन्ता की
मुद्दतों के लब-बस्ता ग़ार गाने लगते हैं
फूल खिलने लगते हैं उजड़े उजड़े गुलशन में
प्यासी प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं
लम्हें भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हें भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं.
Added by Juee Gor on March 4, 2015 at 12:10pm —
No Comments
.....उसकी आँखों में कहीं रहती है,
मैंने जिंदगी बेहद करीब से देखी है..!
Added by Juee Gor on February 22, 2015 at 3:17pm —
No Comments
लगी है आस्मां छूने की कैसी होड़,
जड़ों से आजकल इंसां उखड़ते जा रहे हैं..! (..?)
Added by Juee Gor on February 21, 2015 at 6:42pm —
No Comments