‘क्यों वन्दना...क्या सोच रही हो ?’
‘यही कि आप चले गए तो मैं ये दो-तीन दिन अकेले में कैसे बिताऊंगी ?’
‘झूठ...तुम सोच रही हो कि इस भयंकर तूफान में यह जहाज न उड़े तो, अच्छा हो।’
‘जब आप जानते ही हैं तो फिर सीट कैंसिल ही क्यों नहीं करवा लेते ?’’
‘बस आ गई न मन की बात जबान पर।’
‘हां, मेरा मन कह रहा है कि आज यह जहाज नहीं उड़ेगा।’
‘पगली..!’ बादलों से डरकर हवाई उड़ानें कैंसिल होने लगें तो दूसरे ही दिन हवाई जहाज की कम्पनियों का दिवाला न पिट जाए !’
वाक्य अभी अनिल की जबान पर ही था कि उधर प्लेन की उड़ान की घोषणा हो गई। 187 नम्बर की फ्लाइट अब दिल्ली से बम्बई जाने के लिए तैयार थी। अनिल वन्दना की ओर देखकर मुस्करा पड़ा। उड़ान की घोषणा को सुनकर वन्दना और उदास हो गई। वह नहीं चाहती थी कि अनिल इस समय उससे अलग हो। फिर भी दृढ़तापूर्वक अपनी भावनाओं को दबाकर उसने अपने आपको संभाला और मुस्कराकर पति को विदा किया। अनिल ने हवाई जहाज की ओर बढ़ते हुए वचन दिया कि बम्बई पहुंचते ही वह ट्रंककॉल द्वारा अपनी कुशलता की सूचना देगा और दो ही दिन बाद लौट भी आएगा।
वन्दना उस समय तक अनिल को देखती रही, जब तक कि उसका जहाज उड़ नहीं गया। वह निरंतर लॉज के जंगले के पास खड़ी हाथ हिलाए जा रही थी। भले ही अनिल उसे दिखाई नहीं दे रहा था, पर उसे विश्वास था कि वह जहाज में खिड़की के पास बैठा दृष्टि जमाए उसी को देख रहा होगा।
जहाज उड़ता हुआ कुछ ही क्षण के बाद बादलों की छत के पीछे छिप गया। घने बादलों में थोड़ी-थोड़ी देर बाद बिजली चमकती रही और वन्दना वहीं खड़ी शून्य में देखती, मन-ही-मन गायत्री मंत्र पढ़ती, इस यात्रा में अनिल की कुशलता के लिए प्रार्थना करती रही।
तभी बूंदा-बांदी आरम्भ हो गई और एक हल्की-सी बौछार ने उसे चौंका दिया। दोष उसी का था कि वह अनिल की कल्पना में डूबी रही, वरना बादल तो बड़ी देर से चेतावनी दे रहे थे। उसने साड़ी को छू कर देखा, बौछार से वह भीग गई थी। वह झट पलटी और बरामदे में आ गई, जहां कई यात्री खड़े अपनी ‘उड़ानों’ के बारे में पूछताछ कर रहे थे।
वन्दना जब पालम हवाई अड्डे से बाहर निकली तो शाम ढलकर रात बन चुकी थी। हल्की-हल्की हवा और बरसात से वातावरण कुछ ठण्डा हो गया था। वह तेजी से लपककर कार में जा बैठी और बारिश की बौछार से बचने के लिए उसने खिड़कियों के शीशे अंदर से चढ़ा लिए। इससे पहले कि बारिश भयंकर रूप धारण कर ले, वह अपने घर पहुंच जाना चाहती थी। कार स्टार्ट करके वह हवाई अड्डे से बाहर निकली ही थी कि एकाएक उसके पैर ब्रेकों पर जमकर रह गए। उसकी गर्दन को किसी की गरम सासों ने छू लिया। इस अनुभूति से ही कार में ब्रेक लग गए और कार लहराती हुई सड़क के किनारे जा रुकी।
वन्दना ने सामने लगे आईने में झांकती हुई दो बड़ी-बड़ी आंखें देखीं तो वह सहम गई। इससे पहले कि वह डर से चिल्ला उठती, अंदर बैठे अजनबी ने कार के अंदर की बत्ती जला दी। वन्दना ने पलटकर पीछे देखा और बिफरी हुई आवाज में कह उठी—
‘तुम..?’
‘हां, मैं..तुम्हारा पंकज।’ वह मु्स्कराया।
‘यहां क्या कर रहे हो ?’
‘तुम्हारी प्रतीक्षा।’
‘तुम तो...।’ वह कहते-कहते रुक गई।
‘जेल में था...यही कहना चाहती हो न तुम ?’
वन्दना ने जब खाली-खाली नजरों से देखा, तो वह होठों पर जहरीली मुस्कराहट ले आया, पंकज की आंखों की बुझी हुई चमक साफ बता रही थी कि उसे अपने जीवन की इस घिनौनी घटना को कहते हुए किसी प्रकार का डर या शर्म न थी। वन्दना इस समय उससे उलझना नहीं चाहती थी। वह यह सोच रही थी कि उसे किस तरह टाले, पंकज झट उस पर सवाल कर बैठा—
‘शायद तुमने आज का अखबार नहीं पढ़ा ?’
‘नहीं।’
‘मेरी सजा माफ हो गई है। मैं निर्दोष साबित कर दिया गया हूं।’
‘यह झूठ है।’ वह जैसे अनजाने में ही चिल्ला उठी।
‘तो सच क्या है ?’
‘सच...?’ उसकी जबान पर यह शब्द थरथराकर रह गया। वह आगे कुछ न कह सकी। उसकी खामोशी ने पंकज की हिम्मत और बढ़ा दी। वह कार की सीट पर यों सीधा होकर बैठ गया, जैसे वन्दना अब उसके बहुत करीब है। वह धीमी आवाज में उससे कहने लगा—
‘सच तो यह है वन्दना कि वह तुम्हारे डैडी की एक चाल थी, तुम्हें मुझसे अलग करने की।’
‘उनको दोषी न ठहराओ।’
‘मां-बाप की खता को छिपाकर तुम क्यों बेवफा कहलाना चाहती हो ?’
‘मैं इस पर बहस नहीं करना चाहती।’
‘मैं तुम्हारी मजबूरी समझता हूं। तुम अब पराई हो...किसी और की बीवी हो।’
‘जब जानते हो, तो दोहराने से क्या फायदा ?’
‘अपने जले हुए दिल को सुकून देने के लिए’
‘किसी को अपना लो, सुकून मिल जाएगा।’
‘यह मुझसे न होगा।’
‘तो मैं क्या कर सकती हूं ?’
‘दोस्ती तो निभा सकती हो।’
‘नीचे उतरो...मुझे देर हो रही है।’ वह बेरुखी से बोली।
तभी पंकज ने हाथ बढ़ाकर, कार के अन्दर की बत्ती को बन्द कर दिया। वन्दना खौफ से कांप उठी और अंधेरे में उसकी मोटी-मोटी आंखों को घबराकर देखने लगी, जो धीरे-धीरे सुर्ख हो रही थीं। उसका चेहरा तमतमाने लगा। उसने सिगरेट जेब से निकाल, अपने होठों से चिपकाया और उसे लाइटर से जलाते हुए कह उठा—
‘ये नाते इतनी जल्दी तोड़ दोगी ?’
‘कैसा नाता ?’
‘केवल दोस्ती का ही समझ लो।’
‘मैं दुश्मनों को दोस्त नहीं समझ सकती।’ वन्दना झुंझला गई थी।
‘अनिल बाबू कब लौटेंगे ?’ कुछ देर चुप रहकर पंकज ने बात बदलते हुए पूछा।
वन्दना ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह केवल क्रोध से घूरकर रह गई।
पंकज ने फिर कहा—‘आज रात मैं तुम्हारा मेहमान रहना चाहता हूं...सुबह होते ही चला जाऊंगा। इस शहर में मेरा अपना कोई नहीं, जहां रात काट सकूं।’
‘मेरा घर कोई सराय या धर्मशाला नहीं है..समझे ! अब तु्म जा सकते हो।’ वन्दना ने क्रोध से कहा और इससे पहले पंकज कुछ और कहने का साहस करता, उसने हाथ बढ़ाकर कार का पिछला दरवाजा खोल दिया और उसे नीचे उतरने का संकेत किया।
पंकज ने उसे गुस्से से घूरा और बोला—‘इतना रूखा व्यवहार तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा वन्दना।’
‘आई से, गैट आउट..!’ वह चिल्लाकर बोली और पंकज कार से उतर गया।
इससे पहले कि पंकज कार के सामने वाली खिड़की के पास आकर कुछ कह सकता, वन्दना ने गाड़ी स्टार्ट कर दी और एक ही झटके में उसे अलग करते हुए, कार को आगे ले गई। पंकज डगमगाया और बड़ी मुश्किल से अपने-आपको संभालते हुए चीख उठा—‘यू बास्टर्ड...।’
‘आपने मुझसे कुछ फरमाया ?’ अचानक किसी की आवाज ने उसे चौंका दिया। पंकज ने अपनी कमर टेढ़ी की और उस मोटरगाड़ी को देखने लगा जिससे वह टकराते-टकराते रह गया था। उसने जब उस गाड़ी में झांका तो, उसमें एक फैशनेबुल बुढ़िया मुंह में शराब की बोतल लगाये बैठी शराब की चुस्कियां ले रही थी। बारिश की धीमी बौछार से धुंधलके में जब पंकज ने उस बुढ़िया को अपनी तीखी नजर से देखा तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी और अपने बेढब सुर में कह उठी—
‘अरे रिश्ता ही जोड़ना है तो शबाब को छोड़ शराब से लगा...कभी तुमसे बेवफाई नहीं करेगी।’
पंकज ने नफरत से मुंह मोड़ लिया और दाएं-बाएं पार्क हुई मोटरगाड़ियों की भीड़ को चीरता हुआ खुली सड़क पर चला आया।
दूर आसमान में जब बादल गरजे तो वातावरण कांप उठा। बारिश की गति तेज हो गई। पंकज वहीं खड़ा भीगता हुआ वंदना की उस मोटरगाड़ी की ओर देख रहा था जो बारिश की धुंध में उससे दूर चली जा रही थी। न जाने कितनी देर तक वह गुमसुम खड़ा बारिश में भीगता रहा। बारिश की तेज बौछार उसकी सुलगती हुई भावनाओं को और भड़का रही थी। उसके दिल में प्रतिशोध की भावना का ज्वार-सा उमड़ आया था। वन्दना ने उसके दिल को घायल ही नहीं किया था, बल्कि क्रूरता से उसे कुचल भी डाला था। रात की सर्द हवा में भी वह अंगारों की-सी तपन महसूस कर रहा था।
दो
वन्दना अपने फार्म हाउस में बिल्कुल अकेली थी। रात का घना अंधेरा और उस पर यह प्रलय-सी बरखा...उसका मन बैठा जा रहा था। आज नौकर भी अपने काम से जल्दी निपट कर अपने क्वार्टरों में जा घुसे थे। अनिल के घर में न होने से एक अनोखा सूनापन छाया हुआ था। जरा-सी आहट या हवा की सरसराहट से उसका दिल धड़क उठता। अनिल प्रायः उसे अकेला छोड़कर अपने काम में कई-कई दिन बाहर रह आता था। उसके जाने से वन्दना उदास तो अवश्य होती, लेकिन इस प्रकार का डर उसे कभी अनुभव नहीं हुआ था। इस भयानक तूफान में बादलों की गरज के साथ पंकज की धमकी बार-बार उसके मस्तिष्क में गूंज जाती और वह गूंज उसका धैर्य छिन्न-भिन्न कर देती...उसका साहस लड़खड़ाने लगता।
एकाएक इस तूफानी गरज के बीच टेलीफोन की ‘टर्न-टर्न’ की आवाज ने उसे चौंका दिया। बड़ी देर बैठी वह बम्बई से अनिल के फोन की प्रतीक्षा कर रही थी। उत्सुकता से लपककर उसने झट रिसीवर उठा लिया। इसे अनिल के सकुशल बम्बई पहुंच जाने का संकेत मानकर उसका मन हर्ष से खिल उठा...और अब वह उसकी मधुर आवाज सुनने के लिए बेचैन थी। रिसीवर कान से लगाकर उसने कहा—
‘हैलो...वन्दना स्पीकिंग।’
किन्तु दूसरे ही क्षण वह सिर से पैर तक कांप उठी रिसीवर उसके हाथ से छूटते-छूटते रह गया। स्थिर होकर वह दूसरी ओर से आने वाली आवाज सुनने लगी। यह स्वर उससे भिन्न था, जिसको सुनने के लिए वह अधीर हो रही थी। यह आवाज पंकज की थी...पंकज, जिसको दुत्कारकर उसने कार से उतार दिया था...पंकज, जिसने थोड़ी देर पहले उसे धमकी दी थी। वन्दना ने रिसीवर नीचे रखना चाहा, लेकिन तभी पंकज कह उठा—
‘हैलो...हैलो...वन्दना, मैं जानता हूं तुम विवश हो और शायद इसी कारण मेरी आवाज को भी पहचानने से इंकार कर दो, लेकिन एक बार अपने दिल की गहराइयों में झांककर देखो तो सही। इन धड़कनों में तुम्हारे पति के अलावा एक और नाम भी बसा हुआ है, जिसे तुम पहचानते हुए भी नहीं पहचान रहीं...बोलो...उत्तर दो...दोस्त नहीं तो दुश्मन ही समझकर बात कर लो।’
इससे आगे वन्दना कुछ नहीं सुन सकी। उसने झुंझलाकर रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया। कुछ क्षण बाद टेलीफोन की घंटी फिर बजी, लेकिन वन्दना ने रिसीवर नहीं उठाया। वह मन-ही-मन जलती-भुनती रही। घंटी निरंतर बजती जा रही थी। आखिर झुंझलाकर उसने रिसीवर उठा लिया और बिना दूसरी ओर से आवाज सुने चिल्लाई—
‘ओह...! यू शटअप !’
इस डांट के उत्तर में दूसरी ओर खनकती हुई किसी पुरुष की हंसी की आवाज सुनाई दी और वह धक् से रह गई। यह मधुर स्वर उसके पति अनिल का था जो मुश्किल से अपनी हंसी रोकते हुए कह रहा था—
‘क्यों वीणू...सो रही थीं क्या ?’
‘नहीं तो...।’ वन्दना घबराकर बोली।
तो फिर यह पारा क्यों चढ़ा हुआ था इस समय ?’
‘वह...वह...बात यह है कि कोई फोन पर बार-बार तंग कर रहा था।’
‘तो उसे पता चल गया होगा।’
‘क्या ?’
‘तुम अकेली हो।’
‘उफ्...! अपनी जान पर बनी है और आपको मजाक सूझ रहा है !’
‘क्यों, क्या हुआ ?’
‘टेलीफोन की प्रतीक्षा में नींद नहीं आ रही थी..कितना व्याकुल किया है आपने !’
‘क्या करूं...दो घंटे से ट्राई कर रहा था...लाइन ही नहीं मिली। शायद हिन्दुस्तान के सभी प्रेमियों ने इस समय लाइन इंगेज कर रखी है...प्यार की घड़ी आधी रात को ही आरंभ होती है।’
‘हटिए भी...।’
‘हट जाऊं...? छोड़ दूं फोन ?’
‘नहीं..नहीं...नहीं...!’ वन्दना जल्दी से बोली और अनिल हंसने लगा।
‘यह बड़ा भयंकर तूफान है...थमने का नाम ही नहीं ले रहा।’ वन्दना ने कहा।
‘मगर यहां तो चांदनी छिटकी हुई है और सामने सागर ठाठें मार रहा है। बड़ा सुहावना दृश्य है...आ जाओ।’
‘अनिल ! यहां वातावरण घने अंधकार में डूबा हुआ है...दिल डर से धड़क रहा है।’
‘अपना मौजी मन तो व्हिस्की की तरंग में हिलोरें ले रहा है।’
‘आप फिर व्हिस्की पी रहे हैं ?’
‘वचन भंग नहीं करूंगा...यह आखिरी पैग है।’
‘आप मर्दों का क्या भरोसा !’
‘मन की सच्चाई व्हिस्की पीने के बाद उगल देते हैं...यही न ?’
‘देखिए...अधिक मत पीजिएगा...अपने ब्लड-प्रेशर का ध्यान रखिए।’
‘कुछ ही देर पहले होटल के डाक्टर ने चैक किया था।’
‘फिर ?’
‘उसने कहा है, ब्लड-प्रेशर थोड़ा ‘लो’ है...एक-दो पैग ले लो, नार्मल हो जाएगा।’
‘झूठे कहीं के !’
‘तो सच बता दूं ?’
‘क्या ?’
‘यह चमत्कार तुम्हारे दिए प्यार से हो गया।’
‘चलो हटो...कब आओगे ?’
‘काम समाप्त होते ही पहली फ्लाइट से।’
‘ओ. के....बाई-बाई...गुड नाइट।’
‘स्वीट गुड नाइट...।’
अनिल ने धीमी आवाज में उत्तर दिया और वन्दना ने रिसीवर रख दिया, बाहर बादलों की गरज फिर सुनाई दी और वातावरण जैसे कांपकर रह गया। लेकिन अब उसे इतना डर अनुभव नहीं हुआ। पति के फोन ने उसके व्याकुल और अधीर मन को शांत कर दिया था। उसने कमरे की बत्ती बुझाई और संतोष से बिस्तर पर लेट गई।
काफी देर तक पलंग पर आंखें बंद किए लेटी वह सोने का प्रयत्न करती रही, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। इधर-उधर करवटें बदलकर उसने आंखें खोल दीं और अंधेरे में छत को ताकने लगी। फिर उसने बत्ती जलाई और एक पुस्तक लेकर पलंग पर लेट कर पढ़ने लगी।
परन्तु पुस्तक खुलते ही उसे लगा जैसे किसी ने उसके सामने जीवन की पुस्तक खोल दी थी...एक-एक करके सभी पन्ने उसके सामने पलटने लगे। हर पन्ना एक बीता हुआ दिन था...मानो फिल्म की रील चल रही हो। वह अतीत में खो-सी गई।