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1. आपका साहित्य सफ़र..
साहित्य का सफ़र कक्षा तीन से ही शुरू हो गया था , मेरे अध्यापक श्री रघुवर दयाल शर्मा जी ने विद्यालय में एक सुलेख प्रतियोगिता और भाषण प्रतियोगिता रखी थी जिसमें कि हमें तख्ती पर काली स्याही से लिखना था और एक विषय पर बोलना था . उस प्रतियोगिता में मुझे प्रथम पुरस्कार के रूप में स्वामी दयानंद सरस्वती के विषय में एक पुस्तक मिली थी . उसके बाद भी अनेक पुरस्कारों के रूप में और विशेष स्नेह होने के कारण विद्यालय की लाइब्रेरी के दरवाजे सदा मेरे लिए खुले रहते थे . स्कूल की पत्रिका में और कालेज की पत्रिका से होते हुए यह सफ़र रेल पत्रिकाओं तक पहुँचा और फिर अन्य सामाजिक सरोकार की पत्र-पत्रिकाओं , अखबारों और बाद में ऑरकुट और फेसबुक से इसको उड़ान मिली . मित्रों की किताबों के सम्पादन का अवसर मिला . अपनी दो कविताओं की किताबें प्रकाशित हुई और अभी हाल ही में लघु-कथा संग्रह ज़िन्दा है मन्टो प्रकाशित हुआ है . भारतीय भाषाओं के सरोकारों से जुडी कई संस्थाओं से जुड़ाव ने बहुत से मंचों पर अपनी बात रखने का और लेखन द्वारा विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया है . संगोष्ठियों और साहित्यिक कार्यक्रमों का सिलसिला लगभग पिछले सोलह सालों से निरंतर जारी है .
2. किस व्यक्ति या चीज़ ने आपको लिखने के लिए प्रेरित किया?
किसी भी व्यक्ति के जीवन में दुःख सबसे स्थाई छाप छोड़ता है. इस दुःख से कोई भी अछूता नहीं रहता जीवन में और प्रेम हर व्यक्ति को लिखने पर मजबूर करता है . डायरी लिखते-लिखते न जाने कब प्रेम ने जीवन में कदम रखा और उसके विछोह ने युवा मन को कवि बना डाला ज्ञात नहीं . तुकबंदी से गीत और कथा कहानियों का यह सफ़र कैसे शुरू हो गया पता ही नहीं चला . आज जब अपनी लगभग पांच हजार कविताओं पर नजर डालता हूँ तो खुद पर विश्वास नहीं होता कि ये सब मैंने ही किया है . मेरा पहला प्रेम आज भी मेरा अच्छा मित्र है और मेरे अकेलेपन का साथी . जहाँ तक व्यक्तिगत किसी इंसान की बात है तो वे मेरे अध्यापक ही हैं जिन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ मेरे लेखन और भाषण पर मुझे सराहा और प्रोत्साहित किया . धर्म ,समाज और कुरीतियाँ मुझे शुरू से ही आकर्षित करते रहे और मेरे लेखन के केंद्र में सदैव भाईचारा और प्रेम मेरे लेखन की प्रेरणा बना रहा .
3.साहित्य के बारे में आप क्या विचार रखते है?
साहित्य हर व्यक्ति के जीवन में एक दीपक की तरह है . वह आपका दोस्त होता है और आपका मार्गदर्शक भी . जब आप को कोई राह न सूझती हो तो साहित्य आपको जीवन में राह दिखलाता है . साहित्य न सिर्फ बौधिक विकास में सहायक होता है बल्कि वह आपको सामाजिक सम्मान भी दिलाता है. साहित्य को यदि मैं जलते हुए जीवन में शीतल गंगा जल कहूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है . साहित्य आपकी विचारशीलता, तर्कशीलता और निर्णयों के आत्मविश्वास को मजबूती देता है. इसलिए साहित्य का जितना भी समय मिले पठन-पाठन करना चाहिए . जब आप एक किताब पढ़ते हैं तो एक जीवन जीते हैं . इस तरह एक ही जीवन में अनेक जीवन जीने का साहित्य अनुपम अवसर उपलब्ध करवाता है . साहित्य पढने के लिए भी जीवन कि दिनचर्या में हमें समय निर्धारित करना चाहिए . साहित्य पाठन और उसके बाद मनन से हम अपने जीवन की कठिनाइयों को सहने और सामना करने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकते हैं .
4. एक कवि या लेखक के लिए पढ़ना कितना ज़रूरी होता है?
यह सवाल बहुत अहम् है . हम बैंक में पैसा जमा करते हैं अपनी सुरक्षा के लिए और अपने पैसे के विकास के लिए . जीवन के विकास के लिए विचारों की पूँजी का होना बहुत जरुरी है और विचार ही जीवन को सही राह पर आगे ले जाते हैं . एक कवि या लेखक कितना भी मौलिक चिंतन क्यों न रखता हो किन्तु वह अपने पूर्ववर्ती विचारकों से प्रेरणा जरुर लेता है . वास्तव में हम पहले के ही विचारों को नवीन परिस्थितियों में देख और लिख पढ़ रहे हैं. एक दीपक को जलाने के लिए जिस तरह पहले से ही जलती लौ की जरुरत होती है वैसे ही हर कवि को और लेखक को भी अन्य लोगों को पढना जरुरी होता है , क्योंकि यहीं से नए विचारों का उदय होता है उनके समर्थन में या फिर विरोध में . इसलिए हर कवि या लेखक जितना अधिक पढता है उतना ही अच्छा और प्रमाणिक लिख पाता है . मेरा निजी मत है कि सौ पेज अगर आपने पढ़े हैं तो आप दस पेज लिखने का प्रयास करें. अधिक पढने से आपकी सोच, आपका शब्दकोष और आपका लेखन सभी पैने और पाठक मन तक पैंठ रखने वाले बन जाते हैं . यहाँ मैं यह भी कहना जरुरी समझता हूँ कि इस पढने के कारण ही हम साहित्य और समाज में आ रहे बदलावों को समझ पाते हैं और समय के साहित्य के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पाते हैं .
5.सोशियल मीडिया के बारे में आपकी क्या राय है ?
सोशियल मीडिया नयी आजादी का नाम है . यहाँ पर आप वो सब करने के लिए आजाद हैं जो आपका मन कहता है . लेकिन सोशियल मीडिया आजादी के साथ आपको जिम्मेदारी भी देता है . आप यहाँ पर लेखक, एडिटर और प्रकाशक तीनों की भूमिका एक साथ निभाते हैं इसलिए बहुत सजग रहने की जरुरत होती है . यहाँ पर लिखा हुआ एक-एक शब्द आपके व्यक्तित्व और आपकी सोच का आईना होता है . यह आपके मित्र और आपके शत्रुओं का निर्णय भी करता है . इसको मात्र आभासी मानकर हम छुटकारा नहीं पा सकते . यह हमारी छवि का और व्यक्तित्व का साया बनकर हमारे साथ रहता है . इसलिए सोशियल मीडिया पर उन्मादी और हल्का व्यवहार त्याज्य रखना चाहिए . दूसरी बात यह है कि यहाँ पर दूसरों के विचारों के प्रतिकार में भी नम्रता रखनी चाहिए . सहज स्वीकारोक्ति और विनम्रता आपके दुश्मनों की बढ़वार को रोकती है . जरुरी नहीं है कि हर कोई हमारे विचार से सहमत हो और हम हर किसी के विचार से सहमत हों .
सोशियल मीडिया अब एक जवादी हथियार बन चुका है . हथियार का कभी भी दोष नहीं होता . हथियार को औजार बनाना हमारे अपने हाथ में होता है. सोशियल मीडिया हथियार और औजार दोनों की भूमिका निभाता है इसलिए इसका उपयोग सजग और सहज होकर करना चाहिए . यदि यह सरकारों और समाज को बदल सकता है , बना सकता है तो बिगाड़ भी सकता है . अतः इसके उपयोग में सावधानी का समावेश रहना चाहिए . अभिव्यक्ति की आजादी के साथ हमें जिम्मेदारी को नहीं भूलना चाहिए .
6. एक ऐसी किताब जो आप बार बार पढ़ना चाहेंगे ..
यदि एक किताब की बात की जाय तो मैं समझता हूँ कि संस्कृति के चार अध्याय (राष्ट्रकवि दिनकर) है, जिसे मैं बार-बार पढना चाहूँगा . यहाँ मैं यह भी बताना चाहता हूँ कि उसे क्यों पढना चाहूँगा .
भारत की संस्कृति, आरम्भ से ही, सामासिक रही है. उत्तर-दक्षिण पूर्व पश्चिम देश में जहाँ भी जो हिन्दू बसते है. उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामासिक संस्कृति की विशेषता है . तब हिन्दू एवं मुसलमान हैं, जो देखने में अब भी दो लगते हैं. किन्तु उनके बीच भी सांस्कृतिक एकता विद्यमान है जो उनकी भिन्नता को कम करती है . दुर्भाग्य की बात है कि हम इस एकता को पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ रहे है. यह कार्य राजनीति नहीं, शिक्षा और साहित्य के द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए. इस दिशा में साहित्य के भीतर कितने ही छोटे-बड़े प्रयत्न हो चुके है.
दिनकर की मान्यता है कि भारतीय संस्कृति के निर्माण में आर्य एवं द्रविड़ भाषा परिवार के लोगों के साथ-साथ मध्यकालीन मुस्लिम संस्कृति एवं आधुनिक अंग्रेज़ी संस्कृति का भी महत्वपूर्ण योगदान है. आर्य, द्रविड़, मुस्लिम और अंग्रेज़ी प्रभाव को दिनकर जी भारतीय संस्कृति के चार अध्याय मानते हैं. उनकी उपरोक्त मान्यता नेहरू जी की 'भारत की खोज' अथवा डिस्कवरी ऑफ इंडिया से प्रभावित मानी जाती है.
भगवान बुद्ध की धरती भारत में एक बार फिर से सियासत गरमाने लगी है. सभी सियासी दल अपने-अपने तरीके से मौके और अवसर ढूंढने लगे हैं अपनी-अपनी राजनीति चमकाने के लिए. हर नेता उनकी सीख जात-पांत की राजनीति से बचने की नसीहत का बखान करता है , मगर अमल नहीं करता उस पर . जातिगत समीकरण ही बहुत हद तक जीत को निश्चित करते हैं .
‘अगर देश को तरक्की करनी है तो जातिवाद से ऊपर उठना होगा. ऐसा नहीं हो पाया तो देश के जनजीवन का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाएगा. राष्ट्रकवि ने लिखा था, ‘देश को जाति व्यवस्था को भूलना ही होगा. एक या दो जातियों के समर्थन से राज नहीं चलता. यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे तो देश का सार्वजनिक जीवन गल जाएगा'.
इससे उलट देश में नेता हर चुनाव से पहले जाति आधारित सम्मेलनों में भाग लेने में व्यस्त रहते हैं. इसके साथ ही सदस्यता अभियान के तहत हर पार्टी ऑनलाइन पंजीकरण कर अपने नये सदस्य से जाति बताने के लिए बकायदा कॉलम की व्यवस्था करती है . हालांकि नेताओं का कहना है कि सदस्यता फार्म में जाति वाले कॉलम का होना पुरानी परंपरा है जो कि नए सदस्य के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल करने को ध्यान में रखकर किया जाता रहा है.
यह सच है कि देश का अतीत उसकी सामाजिक संरचना, भाईचारा और सौहार्द का रहा है. देश ने हमेशा रचनात्मक पहल की है. आज का हिन्दुस्तान जिस भाईचारे को लेकर गर्व करता है, वह बे-मिसाल है . लेकिन इस सबके बावजूद गरीबों के विकास के लिए आधारभूत संरचना को मजबूत नहीं किया गया. देश में जिस तरह की जाति व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था है उसकी सबसे बड़ी वजह भूमि व्यवस्था रही है. भूमि सुधार कानून को किसी भी सरकार ने प्रभावी ढंग से लागू करने की जहमत नहीं उठाई. देश में जब तक संवैधानिक प्रक्रिया के तहत कोई भी सरकार मजबूत इरादों से वंचितों, गरीबों, शोषितों को उनका हक और सम्मान सुनिश्चित नहीं करेगी तब तक केरल, कर्नाटक, पंजाब, राजस्थान हो या बिहार, भारत का कोई भी राज्य जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के मकड़जाल से मुक्त नहीं हो सकता.
नेताओं को लगता है कि जातिवाद देश के डीएनए में है. जातिवाद की राजनीति के कारण नेताओं ने देश का नुकसान ही किया है. और इस सबके बीच मोदी का यह बयान कि बिहार की तरक्की के लिए जात-पांत की राजनीति से बाहर निकलना होगा, एक अच्छी पहल है लेकिन इस बात को कहने के लिए प्रधानमंत्री अगर राष्ट्रकवि दिनकर की आड़ नहीं लेते तो इसे एक सार्थक पहल कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होता.
'संस्कृति के चार अध्याय' के दूसरे संस्करण की भूमिका में दिनकर ने लिखा है, "पहले संस्करण के बाद जो विवाद हुआ उससे पता चलता है कि इस किताब से सबको तकलीफ़ पहुंची होगी. इस किताब के बारे में मंचों से जो भाषण दिए हए, उनसे यह पता चलता है कि मेरी स्थापनाओं से सनातनी भी दुखी हैं और आर्यसमाजी तथा ब्रह्मसमाजी भी. उग्र हिन्दुत्व के समर्थक तो इस ग्रन्थ से काफी नाराज़ हैं. मेरा विश्वास है कि मेरी कुछ मान्यताएं ग़लत साबित हो सकती हैं, लेकिन इस ग्रन्थ को उपयोगी माननेवाले लोग दिनोंदिन अधिक होते जाएंगे. यह ग्रन्थ भारतीय एकता का सैनिक है. सारे विरोधों के बीच वह अपना काम करता जाएगा."
दिनकर का यह महल साहित्य और दर्शन का है. इतिहास की हैसियत यहां किरायेदार की है. व्यापक शोध और नए नज़रिये के विकास से आप 'संस्कृति के चार अध्याय' की बातों के समानांतर कई बातें पेश कर सकते हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह किताब समन्वय से बन रही हमारी धार्मिकता और भारतीयता का मार्ग तलाश करती है. उन जड़ों पर सीधे हमला करती है जहां से सांप्रदायिकता की शाखाएं फूटती हैं. दिनकर हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिक सोच पर गहरे चोट करते हैं. दिनकर के आर्य बाहर से आए हैं, जबकि आज के हिन्दुत्ववादी कथाकारों के आर्य स्थानीय हैं. दिनकर का इरादा बाहरी या भीतरी बताकर किसी धार्मिक हताशा या गौरव को उभारना नहीं है, बल्कि बिना भावनात्मक हुए इतिहास को आलोचनात्मक निगाह से देखना है. इस पुस्तक को पढ़ते हुए जैसे हिन्दुत्ववादी या आर्यसमाजी, वहाबी नाराज़ हो सकते हैं, वैसे ये अपने हिसाब से इस्तेमाल भी कर सकते हैं.
दिनकर लिखते हैं, "धार्मिकता की अति ने देश का विनाश किया, इस अनुमान से भागा नहीं जा सकता है और यह धार्मिकता भी ग़लत किस्म की धार्मिकता थी." अगर आज के हिन्दुत्ववादी इसे पढ़ते हुए इस पंक्ति पर पहुंचे तो भड़क जाएंगे. दिनकर लिखते हैं, "जो वस्तुएं परिश्रम और पुरुषार्थ से प्राप्त होती हैं, उनकी याचना के लिए भी देवी-देवताओं से प्रार्थना करने का अभ्यास हिन्दुओं में बहुत प्राचीन था. अब जो पुराणों का प्रचार हुए तो वे देश रक्षा, जाति रक्षा और धर्म रक्षा का भार भी देवताओं पर छोड़ने लगे."
ब्राह्मणों और बौद्ध के बीच कटु रिश्ते के बारे में दिनकर ने लिखा है कि उनके बीच सांप और नेवले का संबंध था. ब्राह्मणों ने कहावत चला दी थी कि जो व्यक्ति मरते हुए बौद्ध के मुख में पानी देता है, वह नरक में पड़ता है. अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र और मगध में जैन और बौद्ध कुछ अधिक थे, अतएव ब्राह्मणों ने इन प्रान्तों में जाने की धार्मिक तौर पर मनाही कर दी थी. "इस प्रकार हिन्दुओं ने जात-पात और धर्म की रक्षा की कोशिश में जाति और देश को बर्बाद कर दिया. भारतवर्ष में राष्ट्रीयता की अनुभूति में जो अनेक गाथाएं थीं, उनमें सर्वप्रमुख बाधा यही जातिवाद था. जात अगर ठीक है तो सब कुछ ठीक है. धर्म अगर बचता है तो सब कुछ बचता है. इस भावना के फेर में हिन्दू इस तरह पड़े कि देश तो उनका गया ही जात और धर्म की भी केवल ठठरी ही उनके पास रही."
मैं जब यह किताब पढ़ता हूँ तो उन्हीं संदर्भों को चुन रहा हूं, जिनसे सांप्रदायिकता और धार्मिकता की पहचान को कुछ आलोचनात्मक नज़र से देखा जा सकता है. लेकिन यह किताब पढ़ते हुए आप भले कई बातों से सहमत न हों, भारतीय संस्कृति के समन्वयी रूप से परिचित तो होते ही हैं. दिनकर भारतीयता के निर्माण को हिन्दू पराजय या मुस्लिम विजय के चश्मे से नहीं देखते. वे उन धार्मिक पहचानों और कुरीतियों पर हमला करते हैं, जिनसे हमारी सोच जड़ हो जाती है.
"यदि खुसरो को हिन्दुस्तान ने अपने आदर्श मुसलमान के रूप में उछाला होता तो हिन्दुस्तान की कठिनाइयां कुछ न कुछ कम हो जाती हैं. आज भी मौका है कि हम खुसरो को आदर्श भारतीय मुसलमान के रूप में जनता के सामने पेश करें." दिनकर संस्कृति की इस यात्रा में सांप्रदायिकता के सवालों से काफी जूझ रहे हैं. वो हल का रास्ता खोज रहे हैं. लिखते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के हमारे देश में तीन बड़े नेता कबीर, अकबर और महात्मा गांधी हुए हैं. एक जगह लिखते हैं कि वह हिन्दू अन्य हिन्दुओं से श्रेष्ठ है, जो अपने धर्म के सिवा इस्लाम पर भी श्रद्धा रखता है और वह मुसलमान भी अन्य मुसलमानों से श्रेष्ठ है, जो अपने मज़हब के सिवा हिन्दू धर्म का भी सम्मान करता है.
कबीरदास विद्रोह के अवतार थे. वेद, वर्णाश्रम-धर्म और जात-पात का विरोध उन्होंने उसी निर्भीकता से किया जो निर्भीकता बुद्ध में दिखाई पड़ी. इस्लाम के अनुष्ठानों की आलोचना उन्होंने उसी बहादुरी से से की, जिस बहादुरी के कारण पहले मंसूर और, बाद में सन्त सरमद को शहीद होना पड़ा था. हिन्दू-मुस्लिम समस्या का समाधान उन्हें ठीक दिखाई पड़ा था. कबीर को गुज़रे पांच सौ साल हो गए हैं और आज भी हम यही सोचते हैं कि जब तक भारतीय समाज, पूर्णरूपेण, वेदान्त को अपना आधार नहीं बनाता, हिन्दू-मुस्लिम समस्या का भारत को कोई समाधान नहीं मिलेगा.
आप सोच सकते हैं कि संघ परिवार इन पंक्तियों को पढ़ते हुए कितनी करवटें बदलेगा. दिनकर वेदान्त को अलग नज़रिये से देखते हैं. कहते हैं, "वेदान्त हिन्दू-दर्शन ज़रूर है, लेकिन वह हिन्दुत्व नहीं है. सच्चा वेदान्ती न हिन्दू होता है, न मुसलमान, न बौद्ध या क्रिस्तान( ईसाई), वह केवल अच्छा आदमी होता है. धर्म के आनुष्ठानिक रूप यदि महत्व पाते रहे तो विश्व के धर्मों में कभी एकता नहीं हो सकेगी. मुसलमान कहता रहेगा कि हिन्दू यदि बाजे बजाएंगे तो मेरी नमाज़ में बाधा पड़ेगी और हिन्दू चीखता रहेगा कि मुसलमान यदि गोहत्या करेंगे तो मैं अपनी जान दे दूंगा. तब भी हर बुद्धिमान जानता है कि धर्म की समाधि सड़क पर होने वाले शोर से नहीं टूटती और एक व्यक्ति मांस-भक्षण करता है तो उसके पाप की जिम्मेवारी किसी दूसरे मनुष्य के मत्थे नहीं मढ़ी जाएगी. इसी बुद्धि को मन में बसा लेना और उसके अनुसार आचण करना वेदान्त है."
दिनकर हिन्दुत्व और इस्लामी कट्टरता पर बराबरी से प्रहार करते हैं. लिखते हैं कि इस्लाम प्रभावित होने से डरता है, क्योंकि संशोधित, प्रभावित या सुधरा हुआ इस्लाम, इस्लाम नहीं है. उधर हिन्दुत्व हमेशा इस बात का अभिमानी रहा है कि हिन्दू हिन्दुत्व के भीतर चाहे पतित ही समझा जाए, किन्तु जन्मना वह सभी से श्रेष्ठ है. इस्लाम की वह कट्टरता कि हमारा वही रूप ठीक है जिसे नबी ने परिवर्तित किया था और हिन्दुत्व का यह आग्रह कि धर्म के मामले में हमें किसी से कुछ सीखना नहीं है, ये दोनों बातें दीवार बनकर इस्लाम और हिन्दुत्व के बीच खड़ी हैं.
इसलिए दिनकर अमीर खुसरो और कबीर का सहारा लेते हैं. 'संस्कृति के चार अध्याय' का पाठ करना चाहिए. इस किताब से आप काफी कुछ सीखते हैं. कम से कम सांप्रदायिकता और धार्मिक पहचान की राजनीति के ख़तरे को आप संतुलित नज़रिये से देख पाते हैं. आज सरकार बदलते ही इतिहास लेखन को माक्सवादी विरोध के नाम पर एकतरफा किया जा रहा है. उसमें एक धर्म या चंद जातियों के गौरव का गान हो रहा है उन्हें 'संस्कृति के चार अध्याय' पढ़ना चाहिए. प्रधानमंत्री भले ही अपने सांसदों या संघ परिवार के चंद नेताओं के सांप्रदायिक बयानों पर चुप्पी साध जाते हों, लेकिन 'संस्कृति के चार अध्याय' के जलसे में शिरकत कर रहे हैं, यह भी एक बड़ी बात है. इसके लिए उन्हें बधाई. जो बात आप ख़ुद नहीं बोल सकते, वो 'संस्कृति के चार अध्याय' बोल देगी.
7. युवा लेखको को आप क्या कहना चाहेंगे ?
मेरे युवा साथियों से यही कहना चाहूँगा कि शब्द कभी मरते नहीं हैं . इसलिए सदैव नफरत और विद्वेष से भरे लेखन को त्याज्य रखें . याद रखिये की शान्ति है तो विकास है . हम कभी भी अपनी शान्ति खोये बिना दूसरों की शांति को भंग नहीं कर सकते . अतः अपनी शांति बनाए रखने का सदैव प्रयास करें . केवल किसी पर आक्षेप लगाने, मजाक बनाने और अपने को लाइम लाईट में रखने के लिए वक्तव्यों को न उछालें . लेखक एक जिम्मेदार सामजिक प्राणी होता है इस बात को हमेशा स्मरण रखें . लेखक को चाहिए कि वह अपने पाठक तक अपने मन की बात रखे मगर प्रकाशन से पूर्व वह पाठक के स्थान पर बैठकर भी सोचे . लिखना जितना जरुरी है उस से अधिक गुणवत्ता , सन्देश और उसका अंतिम परिणाम ध्यान रखना भी जरुरी है . लेखन में जल्दबाजी न करें , अपने लिखे को पुनः पढ़ें और यदि संभव हो तो लिखकर छोड़ दें और सप्ताह दो सप्ताह बाद पुनः पढ़ें . इस से आपकी गुणवत्ता बढ़ेगी और आपके निर्णयों और सोच को संबल भी मिलेगा . अंत में सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि लेखन के अच्छे विचार चरित्र और व्यवहार में भी उतारने का श्रम करें . छपास की प्यास की जगह लेखन को प्राथमिकता दें , जीवन में आत्मिक उत्थान को सामने रखें और जीवन के समय को यथा संभव उपयोग में लायें .
Comment
Posted by Hemshila maheshwari on March 10, 2024 at 5:19pm 0 Comments 0 Likes
Posted by Hemshila maheshwari on March 10, 2024 at 5:18pm 0 Comments 0 Likes
Posted by Hemshila maheshwari on September 12, 2023 at 10:31am 0 Comments 1 Like
Posted by Pooja Yadav shawak on July 31, 2021 at 10:01am 0 Comments 1 Like
Posted by Jasmine Singh on July 15, 2021 at 6:25pm 0 Comments 1 Like
Posted by Pooja Yadav shawak on July 6, 2021 at 12:15pm 1 Comment 2 Likes
Posted by Pooja Yadav shawak on June 25, 2021 at 10:04pm 0 Comments 3 Likes
Posted by Pooja Yadav shawak on March 24, 2021 at 1:54pm 1 Comment 1 Like
वो जो हँसते हुए दिखते है न लोग
अक्सर वो कुछ तन्हा से होते है
पराये अहसासों को लफ़्ज देतें है
खुद के दर्द पर खामोश रहते है
जो पोछतें दूसरे के आँसू अक्सर
खुद अँधेरे में तकिये को भिगोते है
वो जो हँसते हुए दिखते है लोग
अक्सर वो कुछ तन्हा से होते है
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