परिक्षा

होती है आज के युग मे भी परिक्षा ! अग्नि ना सही अंदेशे कर देते है आज की सीता को भस्मीभूत ! रिश्तों की प्रत्यंचा पर सदा संधान लिए रहेता है वह तीर जो स्त्री को उसकी मुस्कुराहट, चूलबलेपन ओर सबसे हिलमिल रहेने की काबिलियत पर गडा जाता है सीने मे ! परीक्षा महज एक निमित थी सीता की घर वापसी की ! धरती की गोद सदैव तत्पर थी सीताके दुलार करने को! अब की कुछ सीता तरसती है माँ की गोद ! मायके की अपनी ख्वाहिशो पर खरी उतरते भूल जाती है, देर-सवेर उस दिशा मे तकिया लिए सिर रखना भी ! नही आने देती वो कोई ख्वाब बचपनका ! ढूंढती है दिखावे का दुलार , छलावे से भरे अद्रश्य नगरो मे! भटकती रहती है यहाँ से वहाँ ! शब्दो के हार गले तक आते आते कब नुकीले तीर बन जाते है पता ही नही चलता ! छलनी ह्रदय से आहत वो हो जाती है तैयार परिक्षा हेतु , जुडाव के सारे माध्यम की लाल चुनर ओढ ; वो बैठ जाती है भस्मीभूत होने को , अंदेशो की उठती लाल लपटो मे ! एक एक स्वाहा होते है सारे माध्यम ओर आखिर मे सीता भी हो जाती है स्वाहा......!! ©️हेमशीला माहेश्वरी'शील